________________ 378] [प्रशापनासूत्र गोयमा ! जहण्णाभिणिबोहियणाणी णेरइए जहण्णाभिणिबोहियणाणिस्स नेरइयस्स दव्यद्वयाए तुल्ले, पदेसटुताए तुल्ले, प्रोगाहणटुयाए चउढाणवडिते, ठितीए चउढाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि छट्ठाणडिते, प्राभिणिबोहियणाणपज्जवेहि तुल्ले, सुतणाणमोहिणाणपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, तिहिं दंसह छट्ठाणवडिते। [459-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [459-1 उ.] गौतम ! जघन्य प्राभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि 'जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं ?' ___ [उ.] गौतम ! एक जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी, दूसरे जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की दृष्टि से चतु:स्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से (भी) चतु:स्थानपतित है, वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य है, श्रुतज्ञान और . अवधिज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है तथा तीन दर्शनों की अपेक्षा (भी) षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसामिणिबोहियणाणी वि। [456-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिकों के (पर्यायों के विषय में समझ लेना चाहिए।) [3] अजहण्णमणुक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि एवं चेव / नवरं प्राभिणिबोहियणाणपज्जवेहि सट्टाणे छट्ठाणवडिले। [459-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। विशेष यह है कि वह आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से भी स्वस्थान में षट्स्थानपतित है। 460. एवं सुतणाणी प्रोहिणाणी वि / णवरं जस्स णाणा तस्स अण्णाणा गस्थि / [460] श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार (आभिनिबोधिकज्ञानीपर्यायवत्) जानना चाहिए। विशेष यह है कि जिसके ज्ञान होता है, उसके अज्ञान नहीं होता। 461. जहा नाणा तहा अण्णाणा वि माणितव्वा / नवरं जस्स अण्णाणा तस्स नाणा न भवंति। [461] जिस प्रकार त्रिज्ञानी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में कहा, उसी प्रकार त्रिअज्ञानी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि जिसके अज्ञान होते हैं, उसके ज्ञान नहीं होते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org