Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 376 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम ! मध्यम अवगाहना वाला एक नारक, अन्य मध्यम अवगाहना वाले नैरयिक से द्रव्य को अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से कदाचित हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक है। यदि होन है तो, असंख्यातभाग हीन है अथवा संख्यातभाग हीन है, या संख्यातगुण होन है, अथवा असंख्यातगुण हीन है। यदि अधिक है तो असंख्यात भाग अधिक है अथवा संख्यातभाग अधिक है, अथवा संख्यातगुण अधिक है, या असंख्यातगुण अधिक है। स्थिति की अपेक्षा से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है और कदाचित् अधिक है। यदि हीन है तो असंख्यातभाग हीन है, अथवा संख्यातभाग होन है; अथवा संख्यातगुण हीन है, या असंख्यातगुण हीन है / यदि अधिक है तो प्रसंख्यातभाग अधिक है अथवा संख्यातभाग अधिक है, या संख्यातगुण अधिक है, अथवा असंख्यातगुण अधिक है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से, तीन ज्ञानों, तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों को अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। हे गौतम ! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'मध्यम अवगाहना वाले नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे हैं।' 456. [1] जहण्णठितीयाणं भंते ! नेरइयाणं केवतिया पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा ! अर्णता पज्जवा पण्णत्ता / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ जहण्णट्टितोयाणं नेरइयाणं अणता पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! जहण्णद्वितीए नेरइए जहण्णद्वितीयस्स नेरइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्ठयाए चउढाणवडिते, ठितीए तुल्ले, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि तिहिं णाणेहि तिहि अण्णाणेहिं तिहिं दंसणेहि य छट्ठाणवडिते। [456-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य स्थिति वाले नारकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [456-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्तपर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य स्थिति वाला नारक, दूसरे जघन्य स्थिति वाले नारक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है; स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से, तथा तीन ज्ञान, तीन अज्ञान एवं तीन दर्शनों की अपेक्षा षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। [2] एव उक्कोसद्वितीए वि। [456-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले नारक (के विषय में भी यथायोग्य तुल्य, चतु:स्थानपतित, षट्स्थानपतित आदि कहना चाहिए / [3] प्रजहण्णुक्कोसद्वितीए वि एवं चेव / णवरं सट्टाणे चउट्ठाणवडिते। [456-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) स्थिति वाले नारक के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए / विशेष यह है कि स्वस्थान में चतु:स्थानपतित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org