Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [375 __ गोयमा ! उक्कोसोगाहणए णेरइए उयकोसोगाहणगस्स नेरइयस्स दब्धट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए तुल्ले; ठितीए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अमहिए-जति होणे असंखेज्जभागहोणे वा संखेज्जभागहीणे वा, अह अभहिए असंखेज्जइभागअभइए वा संखेज्जइभागप्रमइए वा; वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि तिहि जाणेहि तिहि अण्णाणेहिं तिहि दसणेहि छट्ठाणवडिते। [455-2 प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट अवगाहना वाले नैरयिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [455-2 उ.] गौतम ! अनन्त पर्याय कहे गए हैं / [प्र. भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि उत्कृष्ट अवगाहना वाले नैरयिकों के अनन्त पर्याय हैं ? उ गौतम ! एक उत्कष्ट अवगाहना वाला नारक, दुसरे उत्कष्ट अवगाहना वाले से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से (भी) तुल्य है; किन्तु स्थिति की अपेक्षा से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है, और कदाचित् अधिक है / यदि हीन है तो असंख्यातभाग हीन है या संख्यातभाग हीन है। यदि अधिक है तो असंख्यात भाग अधिक है, अथवा संख्यातभाग अधिक है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से तथा तीन ज्ञानों, तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (होनाधिक) है। [3] अजहण्णुक्कोसोगाहणगाणं भंते ! नेर इयाणं केवतिया पज्जवा पण्णता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति प्रजहष्णुक्कोसोगाहणगाणं नेरइयाणं प्रणता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! अजहण्णुक्कोसोगाहणए गैरइए अजहण्णुक्कोसोगाहणगस्स गैरइयस्स दवट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले; ओगाहणट्टयाए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अमहिए-जति होणे असंखज्जभागहोणे वा संखेज्जभागहोणे वा संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहीणे वा, अह अभतिए असंखेज्जतिभागमभतिए वा संखेज्जतिभागप्रमभतिए वा संखेज्जगणप्रभतिए वा असंखेज्जगणग्रमातिए वा: ठितीए सिय होणे सिय तुल्ले सिय प्रभतिए---जति होणे असंखेज्जतिभागहीणे वा संखेजतिभागहीणे वा संखेज्जगुणहोणे वा असंखेज्जगुणहीणे वा, अह अभइए असंखेज्जतिभागप्रभइए वा संखेज्जतिभागअब्भहिए वा संखेज्जगुणअब्भइए वा असंखेज्जगुणग्रन्महिए वा; वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि तिहिं णाणेहि तिहि अण्णाणेहि तिहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिते, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति अजहण्णुक्को सोगाहणगाणं नेरइयाणं प्रणता पज्जवा पण्णत्ता। [455-3 प्र.] भगवन् ! अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) अवगाहना वाले नैरयिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? _ [455-3 उ.] गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'मध्यम अवगाहना वाले नैरयिकों के अनन्त पर्याय हैं ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org