Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पांचवाँ विशेषपद (पर्यायपद)] [369 स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित (हीनाधिक) ह, तथा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मति-अज्ञान, श्रुतअज्ञान और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। 446. वाउक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा ! वाउकाइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ! से केपट्टेणं भंते ! एवं वुच्चति वाउकाइयाणं अणंता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! वाउकाइए वाउकाइयस्स दवट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवाडिते, ठितीए तिढाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फास-मतिअण्णाण-सुयअण्णाण-प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। [446 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [446 उ.] गौतम ! (वायुकायिक जीवों के) अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि 'वायुकायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं ?' [उ.] गौतम ! एक वायुकायिक, दूसरे वायुकायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों को अपेक्षा से तुल्य है. (किन्तु) अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित (हीनाधिक) है / स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित (हीनाधिक) है / वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श तथा मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है / 447. बणप्फइकाइयाणं भंते ! केवतिया पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता / से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चति बणकइकाइयाणं अणंता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! बणष्फइकाइए वणप्फइकाइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्ठयाए चउढाणवडिते, ठितीए तिद्वाणवडिए, वण-गंध-रस-फास-मतिअण्णाण-सुयअण्णाण-प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठागडिते, से तेणठेणं गोयमा! एवं बुच्चति वणस्सतिकाइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता। [447 प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [447 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि वनस्पतिकायिक जीवों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक वनस्पतिकायिक दूसरे वनस्पतिकायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से (भी) तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है तथा स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है किन्तु वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के तथा मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org