________________ 370] [ प्रज्ञापनासूत्र और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थान-पतित(हीनाधिक) है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि वनस्पतिकायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। विवेचन-पांच स्थावरों के अनन्तपर्यायों की प्ररूपणा–प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 443 से 447 तक) में पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक पांचों एकेन्द्रिय स्थावरों के प्रत्येक के पृथक्-पृथक अनन्त-अनन्त पर्यायों का निरूपण किया गया है / पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों के पर्यायों की अनन्तता : विभिन्न अपेक्षानों से-मूलपाठ में पूर्ववत् अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित तथा समस्त वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से एवं मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से पूर्ववत् षट्स्थानपतित होनाधिकता बता कर इन सब एकेन्द्रिय जीवों के प्रत्येक के पृथक-पृथक अनन्तपर्याय सिद्ध किये गए हैं / जहाँ (अवगाहना में) चतुःस्थानपतित होनाधिकता है, वहाँ एक पृथ्वीकायिक आदि दूसरे पृथ्वीकायिक आदि से असंख्यातभाग, संख्यातभाग अथवा संख्यातगुण या असंख्यातगुण हीन होता है, अथवा असंख्यातभाग, संख्यातभाग, या संख्यातगुण अथवा असंख्यातगुण अधिक होता है / यद्यपि पृथ्वीकायिक जीवों की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग ण होती है, किन्तु अंगुल के असंख्यातवें भाग के भी असंख्यात भेद होते हैं, इस कारण पृथ्वीकायिक जीवों की पूर्वोक्त चतु:स्थानपतित होनाधिकता में कोई विरोध नहीं है / जहाँ (स्थिति में) त्रिस्थानपतित होनाधिकता होती है, वहाँ पृथ्वीकायिकादि में हीनाधिकता इस प्रकार समझनी चाहिए.--एक एकेन्द्रिय दूसरे एकेन्द्रिय से असंख्यातभाग या संख्यातभाग हीन अथवा संख्यातगुणा हीन होता है अथवा असंख्यातभाग अधिक, संख्यातभाग अधिक या संख्यातगुण अधिक होता है / इनकी स्थिति में चतु:स्थानपतित हीनाधिकता नहीं होती, क्योंकि इनमें असंख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणवृद्धि सम्भव नहीं है / इसका कारण यह है कि पृथ्वीकायिक आदि की सर्वजघन्य आयु क्षुल्लकभवग्रहणपरिमित है। क्षुल्लकभव का परिमाण दो सौ छप्पन प्रावलिकामात्र है। दो घड़ी का एक मुहूर्त होता है / और इस एक मुहूर्त में 65536 भव होते हैं / इसके अतिरिक्त पृथ्वीकाय आदि की उत्कृष्ट स्थिति भी संख्यात वर्ष की ही होती है। अत: इनमें असंख्यातगुणा हानि-वृद्धि (न्यूनाधिकता) नहीं हो सकती। अब रही बात असंख्यातभाग, संख्यातभाग और संख्यातगुणा हानिवृद्धि की, वह इस प्रकार है / जैसे-एक पृथ्वीकायिक की स्थिति परिपूर्ण 22 हजार वर्ष की है, और दूसरे की एक समय कम 22000 वर्ष की है, इनमें से परिपूर्ण 22000 वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक की अपेक्षा, एक समय कम 22000 वर्ष की स्थिति वाला पृथ्वीकायिक असंख्यातभाग हीन कहलाएगा, जबकि दूसरा असंख्यातभाग अधिक कहलाएगा। इसी प्रकार एक की परिपूर्ण 22000 वर्ष की स्थिति है, जबकि दूसरे की अन्तर्मुहूर्त आदि कम 22000 वर्ष की है। अन्तमुहर्त आदि बाईस हजार वर्ष का संख्यातवाँ भाग है। अत: पूर्ण 22 हजार वर्ष की स्थिति वाले की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कम 22 हजार वर्ष की स्थिति वाला संख्यात-भाग हीन है और उसकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कम 22000 वर्ष की स्थिति वाला संख्यातभाग अधिक है। इसी प्रकार एक पृथ्वीकायिक की पूरी 22000 वर्ष की स्थिति है, और दूसरे की अन्तर्मुहूर्त की, एक मास की, एक वर्ष की या एक हजार वर्ष की है। अन्तमुहर्त आदि किसी नियत संख्या से गुणाकार करने पर 22000 वर्ष की संख्या होती है / अत: अन्तर्मुहूर्त आदि की आयुवाला पृथ्वीकायिक, पूर्ण बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले की अपेक्षा संख्यातगुण-हीन है और इसकी अपेक्षा 22000 बर्ष की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org