Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 372] [ प्रज्ञापनासूत्र बोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और प्रचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। 446. एवं तेइंदिया वि। 449] इसी प्रकार श्रीन्द्रिय जीवों के (पर्यायों की अनन्तता के) विषय में समझना चाहिए / 450. एवं चउरिदिया वि / णवरं दो दंसणा-चक्खुदंसणं अचक्खुदंसणं च / [450[ इसी तरह चतुरिन्द्रिय जीवों (के पर्यायों) की अनन्तता होती है। विशेष यह है कि उनमें चक्षुदर्शन भी होता है / (अतएव इनके पर्यायों की अपेक्षा से भी चतुरिन्द्रिय की अनन्तता समझ लेनी चाहिए।) 451. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जवा जहा नेरइयाणं तहा भाणितव्वा / [451] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों के पर्यायों का कथन नैरयिकों के समान (440 सूत्रानुसार) कहना चाहिए। विवेचन-विकलेन्द्रिय एवं तिर्यचपंचेन्द्रिय जीवों के अनन्तपर्यायों का निरूपण--प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 448 से 451 तक) में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्यायों का सयुक्तिक निरूपण किया गया है। विकलेन्द्रिय एवं तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों के अनन्तपर्यायों के हेतु-इन सब में द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा परस्पर समानता होने पर भी अवगाहना की दृष्टि से पूर्ववत् चतु:स्थानपतित, स्थिति की दृष्टि से त्रिस्थानपतित एवं वर्णादि के तथा मतिज्ञानादि के पर्यायों की दृष्टि से षट्स्थानपतित न्यूनाधिकता होती है, इस कारण इनके पर्यायों की अनन्तता स्पष्ट है।' मनुष्यों के अनन्तपर्यायों की सयुक्तिक प्ररूपरणा 452. मणुस्साणं भंते ! केवतिया पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति मणुस्साणं अणता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! मणुस्से मणुस्सस्स दवट्टयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए चउढाणवडिते, ठितीए चउढाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फास-प्रामिणिबोहियणाण-सुतणाण-प्रोहिणाण-मणपज्जवणाणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते, केवलणाणपज्जवेहि तुल्ले, तिहि अण्णाणेहि तिहिं देसणेहि छट्ठाणवडिते, केवलदसणपज्जवेहि तुल्ले। [452 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [452 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्तपर्याय कहे हैं / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'मनुष्यों के अनन्तपर्याय हैं ?' 1. प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 186 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org