________________ पांचवाँ विशेषपर (पर्यायपद)] [371 स्थिति वाला पृथ्वीकायिक संख्यातगुण अधिक है। इसी प्रकार अप्कायिक से वनस्पतिकायिक तक के एकेन्द्रिय जीवों की अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार त्रिस्थानपतित न्यूनाधिकता समझ लेनी चाहिए / ___ भावों (वर्णादि या मति-अज्ञानादि के पर्यायों) की अपेक्षा से षट्स्थानपतित न्यूनाधिकता होती है, वहाँ उसे इस प्रकार समझना चाहिए---एक पृथ्वीकायिक आदि, दूसरे पृथ्वीकायिक आदि से अनन्तभागहीन, असंख्यातभागहीन और संख्यातभागहीन अथवा संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन और अनन्तगुणहीन तथा अनन्तभाग-अधिक, असंख्यातभाग-अधिक और संख्यातभाग-अधिक तथा संख्यातगुणा, असंख्यातगुणा और अनन्तगुणा अधिक है। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीव के वर्गादि या मतिप्रज्ञानादि विभिन्न भावपर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित हीनाधिकता की तरह अप्कायिक आदि एकेन्द्रियजीवों की षट्स्थानपतित हीनाधिकता समझ लेनी चाहिए। इन सब दृष्टियों से पृथ्वीकायिकादि प्रत्येक एकेन्द्रिय जीव के पर्यायों की अनन्तता सिद्ध होती है।' विकलेन्द्रिय एवं तियंच पंचेन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्यायों का निरूपण 448. बेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णता / से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति बेइंदियाणं प्रणता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! बेइंदिए बेइंदियस्स दबटुयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए सिय होणे सिय तुल्ले सिय प्रभहिएजति होणे प्रसंखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहीणे वा, अह अन्महिए असंखेज्जभागममहिए वा संखेज्जभागमभहिए वा संखेज्जगुणमभइए वा असंखेज्जगुणमन्भहए वा; ठितीए तिढाणवडिते; वण्ण-गंध-रस-फास-प्राभिणिबोहियणाण-सुतणाण-मतिअण्णाण-सुत अण्णाण-प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते / [448 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [448 उ] गौतम ! अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि द्वीन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक द्वीन्द्रिय जीव दूसरे द्वीन्द्रिय से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की दृष्टि से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है, और कदाचित् अधिक है / यदि हीन होता है, (तो) या तो असंख्यातभाग हीन होता है, या संख्यातभागहीन होता है, अथवा संख्यातगुण हीन या असंख्यातगुण हीन होता है। अगर अधिक होता है तो असंख्यातभाग अधिक, या संख्यातभाग अधिक, अथवा संख्यातगुणा या असंख्यातगुणा अधिक होता है। स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थान-पतित हीनाधिक होता है, तथा वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श के तथा प्राभिनि 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 186 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org