Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 368] [प्रज्ञापनासूत्र अथवा संख्यातगुण हीन है, या असंख्यातगुण हीन है। यदि अधिक है तो असंख्यातभाग अधिक हैं या संख्यातभाग अधिक है, अथवा संख्यातगुण अधिक है अथवा असंख्यातगुण अधिक है / स्थिति की अपेक्षा से कदाचित् हीन है कदाचित् तुल्य है, कदाचित् अधिक है / यदि हीन है तो असंख्यातभाग होन है, या संख्यातभाग हीन है, अथवा संख्यातगण हीन है। यदि अधिक है तो असं अधिक है, या संख्यात भाग अधिक है, अथवा संख्यातगुण अधिक है / वर्णों (के पर्यायों) गन्धों, रसों और स्पर्शों (के पर्यायों) की अपेक्षा से, मति-अज्ञान-पर्यायों, श्रुत-अज्ञानपर्यायों एवं अचक्षुदर्शनपर्यायों की अपेक्षा से (एक पृथ्वीकायिक दूसरे पृथ्वी कायिक से) षट्स्थानपतित है। 444. प्राउकाइयाणं भंते ! केवतिया पज्जवा पण्णता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति पाउकाइयाणं अणंता पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! पाउकाइए पाउकाइयस्स दवढयाए तुल्ले, पदेसताए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए चउढाणवडिते, ठितीए तिढाणवडिते, वण्ण-गंध-रस फास-मतिअण्णाण-सुतअण्णाण-प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। [444 प्र.] भगवन् ! अप्कायिक जीवों के कितने पर्याय कहे हैं ? [444 उ.] गौतम (उनके) अनन्तपर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि अप्कायिक जीवों के अनन्तपर्याय हैं ? [उ] गौतम ! एक अप्कायिक दूसरे अप्कायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों को अपेक्षा से (भी) तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित (हीनाधिक) है, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थान-पतित (हीनाधिक) है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श मति-अज्ञान, श्रत-अज्ञान और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है / 445. तेउक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा ! प्रणता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं बच्चति तेउकाइयाणं प्रणता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! तेउक्काइए तेउक्काइयस्स दवढयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, श्रोगाहणट्टयाए चउढाणवडिते, ठितीए तिढाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फास-मतिअण्णाण-सुयअण्णाण-प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। {445 प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [445 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्तपर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस हेतु से कहा जाता है कि तेजस्कायिक जीवों के अनन्तपर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक तेजस्कायिक, दूसरे तेजस्कारिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों को अपेक्षा से (भी) तुल्य है, किन्तु) अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित (हीनाधिक) है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org