________________ 366] [ प्रज्ञापनासून निष्कर्ष-यहाँ कृष्णवर्ण आदि पर्यायों को लेकर जो षस्थानपतित होनाधिक्य बताया गया है, उससे स्पष्ट ध्वनित हो जाता है कि जब एक कृष्णवर्ण को लेकर ही अनन्तपर्याय होते हैं तो सभी वर्गों के पर्यायों का तो कहना ही क्या? इसके द्वारा यह भी सूचित कर दिया है कि जीव स्वनिमित्तक एवं परनिमित्तक विविध परिणामों से युक्त होता है। कर्मोदय से प्राप्त शरीर के अनुसार उसके (जीव के) प्रात्मप्रदेशों में संकोच-विस्तार तो होता है, किन्तु हीनाधिकता नहीं होती। असुरकुमार आदि भवनवासी देवों के अनन्त पर्याय 441. असुरकुमाराणं भंते ! केवतिया पज़्जवा पण्णता ? गोयमा ! प्रणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ असुरकुमाराणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा ! असुरकुमारे असुरकुमारस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्ठयाए चउढाणवडिए, ठितीए चउठाणवडिए, कालवण्णपज्जवेहि छट्ठाणवडिए, एवं गोलवण्णपज्जवेहि लोहियवण्णपज्जवेहिं हालिदवण्णपज्जवेहि सुविकलवण्णपज्जवेहि, सुब्भिगंधपज्जवेहिं दुनिभगंधपज्जवेहि तित्तरसपज्जवेहि कडुपरसपज्जवेहिं कसायरसपज्जवेहि अंबिलरसपज्जवेहिं महुररसपज्जवेहि, कक्खडफासपज्जवेहि मउयफासपज्जवेहि गरुयफासपज्जवेहि लहुयफासपज्जवेहिं सोतफासपज्जवेहि उसिणफासपज्जवेहि निद्धफासपज्जवेहि लुक्खफासपज्जवेहि, प्राणिबोहियणाणपज्जवेहि सुतणाणपज्जवेहि प्रोहिणाणपज्जवेहि, मतिअण्णाणपज्जवेहि सुयअण्णाणपज्जवेहि विभंगणाणपज्जवेहि, चक्खुदंसणपज्जबेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहिं प्रोहिदसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते, से तेगट्टेणं गोयमा! एवं वुच्चति असुरकुमाराणं प्रणंता पज्जवा पण्णत्ता। [441 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितने पर्याय कहे हैं ? [441 उ.] गौतम ! उनके अनन्तपर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि 'असुरकुमारों के पर्याय अनन्त हैं ?' [उ.] गौतम ! एक असुरकुमार दूसरे असुरकुमार से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है; (किन्तु) अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, कृष्णवर्णपर्यायों की अपेक्षा से षस्थानपतित है। इसी प्रकार नीलवर्ण-पर्यायों, रक्त(लोहित)वर्ण-पर्यायों, हारिद्रवर्ण-पर्यायों, शुक्लवर्ण-पर्यायों की अपेक्षा से; तथा सुगन्ध और दुर्गन्ध के पर्यायों की अपेक्षा से; तिक्तरस-पर्यायों, कटुरस-पर्यायों, काषायरस-पर्यायों, आम्लरस-पर्यायों एवं मधुरस-पर्यायों की अपेक्षा से; तथा कर्कशस्पर्श-पर्यायों, मृदुस्पर्श-पर्यायों, गुरुस्पर्श-पर्यायों, लघुस्पर्श-पर्यायों, शीतस्पर्श-पर्यायों, उष्णस्पर्श-पर्यायों, स्निग्धस्पर्श-पर्यायों, और रूक्षस्पर्श-पर्यायों की अपेक्षा से तथा आभिनिबोधिकज्ञान-पर्यायों, श्रुतज्ञान-पर्यायों, अवधिज्ञान-पर्यायों, मति-अज्ञानपर्यायों, श्रुत-अज्ञान-पर्यायों, विभंगज्ञान-पर्यायों, चक्षुदर्शनपर्यायों, अचक्षुदर्शन-पर्यायों और अवधि 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 184 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.