________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद) j [365 होने वाले क्षायोपशमिक भाव को लेकर आभिनिबोधिक ज्ञान प्रादि पर्यायों की अपेक्षा भी षट्स्थानपतित हानि-वृद्धि समझ लेनी चाहिए।' षट्स्थानपतितत्व का स्वरूप-यद्यपि कृष्णवर्ण के पर्यायों का परिमाण अनन्त, है, तथापि असत्कल्पना से उसे दस हजार मान लिया जाए और सर्वजीवानन्तक को सौ मान लिया जाए तो दस हजार में सौ का भाग देने पर सौ की संख्या लब्ध होती है। इस दृष्टि से एक नारक के कृष्णवर्णपर्यायों का परिमाण मान लो दस सहस्र है और दूसरे के सौ कम दस सहस्र है / सर्वजीवानन्तक में भाग देने पर सौ की संख्या लब्ध होने से वह अनन्तवाँ भाग है, अतः जिस नारक के कृष्णवर्ण के पर्याय सौ कम दस सहस्र हैं वह पूरे दस सहस्र कृष्णवर्णपर्यायों वाले नारक को अपेक्षा अनन्तभागहीन कहलाता है / उसकी अपेक्षा से दूसरा पूर्ण दस सहस्र कृष्णवर्णपर्यायों वालों नारक अनन्तभाग-अधिक है। इसी प्रकार दस सहस्र परिमित कृष्णवर्ण के पर्यायों में लोकाकाश के प्रदेशों के रूप में कल्पित पचास से भाग दिया जाए तो दो सौ संख्या आती है, यह असंख्यातवाँ भाग कहलाता है। इस दृष्टि से किसी नारक के कृष्णवर्ण-पर्याय दो सौ कम दस हजार हैं और किसी के पूरे दस हजार हैं। इनमें से दो सौ कम दस हजार कृष्णवर्ण-पर्याय वाला नारक पर्ण दस हजार कृष्णवर्णपर्या नारक से असंख्यातभागहीन कहलाता है और परिपूर्ण कृष्ण वाला नारक, दो सौ कम दस सहस्र वाले की अपेक्षा असंख्यातभागअधिक कहलाता है। इसी प्रकार पूर्वोक्त दस सहस्रसंख्यक कृष्णवर्णपर्यायों में संख्यातपरिमाण के रूप में कल्पित दस संख्या का भाग दिया जाए तो एक सहस्र संख्या लब्ध होती है। यह संख्या दस हजार का संख्यातवा भाग है। मान लो, किसी नारक के कृष्णवर्णपर्याय में संख्यात परिमाण के रूप में कल्पित दस संख्या का भाग दिया जाए तो एक सहस्र संख्या लब्ध होती है / यह संख्या दस हजार का संख्यातवाँ भाग है। मान लो, किसी नारक के कृष्णवर्णपर्याय 6 हजार हैं और दूसरे नारक के दस हजार हैं, तो नौ हजार कृष्णवर्णपर्याय वाला नारक, पूर्ण दस हजार कृष्णवर्णपर्यायवाले नारक से संख्यातभागहीन हुआ; तथा उसकी अपेक्षा परिपूर्ण दस हजार कृष्णवर्णपर्यायवाला नारक संख्यातभाग-अधिक हुआ / इसी प्रकार एक नारक के कृष्णवर्णपर्याय एक सहस्र हैं, दूसरे नारक के दस सहस्र हैं। यहाँ उत्कृष्ट संख्या के रूप में कल्पित दस संख्या को हजार से गणाकार करने पर दससहनसंख्या पाती है। इस दष्टि से एक सहस्र कष्णवर्णपर्याय वाला नारक, दससहस्रसंख्यक कृष्णवर्णपर्याय वाले नारक से संख्यातगुणहीन है और उसकी अपेक्षा दस सहस्र कृष्णवर्णपर्याय वाला नारक संख्यातगुण-अधिक है। इसी प्रकार एक नारक के कृष्णवर्णपर्यायों का परिमाण दो सौ है, और दूसरे के कृष्णवर्णपर्यायों का परिमाण दस हजार है। दो सौ का यदि असंख्यात रूप में कल्पित पचास के साथ गुणा किया जाए तो दस हजार होता है। अतः दो सौ कृष्णवर्णपर्याय वाला नारक दस हजार कृष्णवर्ण-पर्याय वाले नारक को अपेक्षा असंख्यातगुण होन है और उसकी अपेक्षा दस हजार कृष्णवर्णपर्याय वाला नारक असंख्यातगुणा अधिक है। इसी प्रकार मान लो, एक नारक के कृष्णवर्णपर्याय सौ हैं, और दूसरे के दस हजार हैं। सर्वजीवान्तक परिमाण के रूप में परिकल्पित सौ को सौ से गुणाकार किया जाए तो दस हजार संख्या होती है / अतएव सौ कृष्णवर्णपर्याय वाला नारक दस हजार कृष्ण वर्णवाले नारक से अनन्तगुणा हीन हया और उसकी अपेक्षा दुसरा अनन्तगणा अधिक प्रा। 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 182 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 183 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org