________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [ 367 दर्शन-पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। हे गौतम ! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि असुरकुमारों के पर्याय अनन्त कहे हैं। 442. एवं जहा नेरइया जहा असुरकुमारा तहा नागकुमारा वि जाव थणियकुमारा। [442] इसी प्रकार जैसे नैरयिकों के (अनन्तपर्याय कहे गए हैं,) और असुरकुमारों के कहे हैं, उसी प्रकार नागकुमारों से लेकर यावत् स्तनितकुमारों के (अनन्तपर्याय कहने चाहिए / ) / विवेचन-असुरकुमार प्रादि भवनयतिदेवों के अनन्तपर्याय-प्रस्तुत दो सूत्रों (441-442) में असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के भवनपतियों के अनन्तपर्यायों का, नैरयिकों के अतिदेशपूर्वक सयुक्तिक निरूपण किया गया है। असुरकुमारों के पर्यायों को अनन्तता- एक असुर कुमार दूसरे असुरकुमार से पूर्वोक्त सूत्रानुसार द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना और स्थिति के पर्यायों की दृष्टि के पूर्ववत चतुःस्थानपतित हीनाधिक हैं तथा कृष्णादिवर्ण, सुगन्ध-दुर्गन्ध, तिक्त आदि रस, कर्कश आदि स्पर्श एवं ज्ञान, अज्ञान एवं दर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से पूर्ववत् षट्स्थानपतित हैं / आशय यह है कि कृष्णवर्ण को लेकर अनन्तपर्याय होते हैं, तो सभी वर्गों के पर्यायों का तो कहना ही क्या ? इस हेतु से असुरकुमारों के ' अनन्तपर्याय सिद्ध हो जाते हैं / पांच स्थावरों (एकेन्द्रियों) के अनन्तपर्यायों की प्ररूपरणा-- 443. पुढविकाइयाणं भंते ! केवतिया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति पुढविकाइयाणं प्रणता पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा ! पुढविकाइए पुढविकाइयस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले; अोगाहणट्टयाए सिय होणे सिय सुल्ले सिय प्रभइए-जदि होणे असंखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहोणे बा, अह अब्भहिए असंखेज्जतिभागप्रभतिए वा संखेज्जतिभागअमहिए वा संखेज्जगुणप्रभहिए वा असंखेज्जगुणप्रभहिए वा; ठितीए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए-जति होणे असंखेज्जभागहोणे वा संखेज्जभागहोणे वा संखेज्जगुणहीणे वा, अह अब्भतिए असंखेज्जभागमभतिए वा संखेज्जभागमभतिए वा संखेज्जगुणप्रभतिए वा; वर्णेहि गंधेहिं रसेहि फासेहि, मतिअण्णाणपज्जवेहि सुयअण्णाणपज्जवेहि अचवखुदंसणपज्जवेहि छट्ठाणवडिते / [443 प्र] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [443 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक जीवों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक पृथ्वीकायिक दूसरे पृथ्वीकायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, (प्रात्म) प्रदेशों की अपेक्षा से (भो) तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की अपेक्षा से कदाचित् हीन है, कदाचित् - तुल्य है और कदाचित् अधिक है। यदि हीन है तो असंख्यातभाग हीन है अथवा संख्यातभाग हीन है, 1. प्रज्ञापनासूत्र, प्रमेयबोधिनी टीका, भा-२, प्र. 576 से 579 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org