________________ 362] [ प्रज्ञापनासून पर्यायों तथा रूक्ष-स्पर्शपर्यायों की अपेक्षा से--- (एक नारक दूसरे नारक से) षट्स्थानपतित हीनाधिक होता है। (इसी प्रकार) अाभिनिबोधिकज्ञानपर्यायों, श्रुतज्ञानपर्यायों, अवधिज्ञानपर्यायों, मति-अज्ञानपर्यायों, श्रुत-अज्ञानपर्यायों, विभंगज्ञानपर्यायों, चक्षुदर्शनपर्यायों, अचक्षुदर्शनपर्यायों तथा अवधिदर्शनपर्यायों की अपेक्षा से- (एक नारक दूसरे नारक से) षट्स्थानपतित होनाधिक होता है / हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है, कि 'नारकों के पर्याय संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, किन्तु अनन्त कहे हैं।' विवेचन--नरयिकों के अनन्त पर्याय : क्यों और कैसे ?--प्रस्तुत सूत्र में अवगाहना, स्थिति, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं क्षायोपशमिकभावरूप ज्ञानादि के पर्यायों की अपेक्षा से हीनाधिकता का प्रतिपादन करके नैरयिकों के अनन्तपर्यायों को सिद्ध किया गया है / प्रश्न का उद्भव और समाधान सामान्यतः जहाँ पर्यायवान् अनन्त होते हैं, वहाँ पर्याय भी अनन्त होते हैं, किन्तु जहाँ पर्यायवान् (नारक) अनन्त न हों (असंख्यात हों), वहाँ पर्याय अनन्त कैसे होते हैं ? इस आशय से यह प्रश्न श्रीगौतमस्वामी द्वारा उठाया गया है / भगवान् के द्वारा उसका समाधान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के पर्पयों की अपेक्षा से किया गया है। द्रव्य की अपेक्षा से नारकों में तुल्यता-प्रत्येक नारक दूसरे नारक से द्रव्य की दृष्टि से तुल्य है, अर्थात्-प्रत्येक नारक एक-एक जीव-द्रव्य है / द्रव्य की दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है / इस कथन के द्वारा यह भी सूचित किया है कि प्रत्येक नारक अपने आप में परिपूर्ण एवं स्वतंत्र जीव द्रव्य है / यद्यपि कोई भी द्रव्य, पर्यायों से सर्वथा रहित कदापि नहीं हो सकता, तथापि पर्यायों की विवक्षा न करके केवल शुद्ध द्रव्य की विवक्षा की जाए तो एक नारक से दूसरे नारक में कोई विशेषता नहीं है। प्रदेशों की अपेक्षा से भी नारकों में तुल्यता--प्रदेशों की अपेक्षा से भी सभी नारक परस्पर तुल्य हैं, क्योंकि प्रत्येक नारक जीव लोकाकाश के बराबर असंख्यातप्रदेशी होता है। किसी भी नारक के जीवप्रदेशों में किञ्चित् भी न्यूनाधिकता नहीं है। सप्रदेशी और अप्रदेशी का भेद केवल पुद्गलों में है, परमाणु अप्रदेशी होता है, तथा द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी आदि स्कन्ध सप्रदेशी होते हैं। क्षेत्र (अवगाहना) की अपेक्षा से नारकों में होनाधिकता-अवगाहना का अर्थ सामान्यतया प्राकाशप्रदेशों को अवगाहन करना-उनमें समाना होता है। यहाँ उसका अर्थ है-- शरीर की ऊँचाई / अवगाहना (शरीर की ऊँचाई) की अपेक्षा से सब नारक तुल्य नहीं हैं। जैसे रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के वैक्रियशरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल की है। आगे-आगे को नरकपृथ्वियों में उत्तरोत्तर दुगुनी-दुगुनी अवगाहना होती है / सातवीं नरकपृथ्वी में अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की है। इस दृष्टि से किसी नारक से किसी नारक की अवगाहना हीन है, किसी की अधिक है, जबकि किसी की तुल्य भी है। यदि कोई नारक अवगाहना से हीन (न्यून) होगा तो वह असंख्यातभाग या संख्यातभाग हीन होगा, अथवा संख्यातगुण हीन या असंख्यातगुण हीन होगा, किन्तु यदि कोई नारक अवगाहना में अधिक होगा तो असंख्यातभाग या संख्यातभाग अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org