Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पंचमं विसेसपयं (पज्जवपयं) पांचवाँ विशेषपद (पर्यायपद) पर्यायों के प्रकार और अनन्तजीवपर्याय का सयुक्तिक निरूपण 438. कतिविहा णं भंते ! पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पज्जवा पण्णत्ता / तं जहा-जीवपज्जवा य अजीवपज्जवा य / [438 प्र.] भगवन् ! पर्यव या पर्याय कितने प्रकार के कहे हैं ? [438 उ.] गौतम ! पर्यव (पर्याय) दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार-(१) जीवपर्याय और (2) अजीवपर्याय / जीव-पर्याय 436. जीवपज्जवा शं भंते ! कि संखेज्जा असंखेज्जा, अणंता ? गोयमा! णो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। से केणठेणं भंते ! एवं वच्चति जीवपज्जवा नो संखेज्जा नो असंखेज्जा प्रणता ? गोयमा ! असंखेज्जा नेरइया, असंखेज्जा असुरा, असंखेज्जा णागा, असंखेज्जा सुवण्णा, असंखेज्जा विज्जुकुमारा, असंखेज्जा अग्गिकुमारा, असंखेज्जा दीवकुमारा, असंखेज्जा उदहिकुमारा, असंखेज्जा दिसाकुमारा, असंखेज्जा वाउकुमारा, असंखेज्जा थणियकुमारा, असंखेज्जा पुढविकाइया, असंखेज्जा पाउकाइया, असंखेज्जा तेउकाइया, असंखेज्जा वाउकाइया, अणंता वण्णफइकाइया, असंखेज्जा बेइंदिया, असंखेज्जा तेइंदिया, असंखेज्जा चरिंदिया, असंखेज्जा पंचिदियतिरिवखजोणिया, असंखेज्जा मणुस्सा, असंखेज्जा वाणमंतरा, असंखेज्जा जोइसिया, असंखेज्जा वेमाणिया, अणंता सिद्धा, से एएणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति ते णं णो संखेज्जा णो असंखेज्जा, अणंता / [439 प्र.] भगवन् ! जीवपर्याय क्या संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [436 उ.] गौतम ! (वे) न (तो) संख्यात हैं, और न असंख्यात हैं, (किन्तु) अनन्त हैं। [प्र.] भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है कि जीवपर्याय, न संख्यात हैं, न असंख्यात (किन्तु) अनन्त हैं ? [उ ] गौतम ! असंख्यात नैरयिक हैं, असंख्यात असुर (असुरकुमार) हैं, असंख्यात नाग (नागकुमार) हैं, असंख्यात सुवर्ण (सुपर्ण) कुमार हैं, असंख्यात विद्युत्कुमार हैं, असंख्यात अग्निकुमार हैं, असंख्यात द्वीपकुमार हैं, असंख्यात उदधिकुमार हैं, असंख्यात दिशाकुमार हैं, असंख्यात वायुकुमार हैं, असंख्यात स्तनितकुमार हैं, असंख्यात पृथ्वीकायिक हैं, असंख्यात अप्कायिक हैं, असंख्यात तेजस्कायिक हैं, असंख्यात वायुकायिक हैं, अनन्त वनस्पतिकायिक हैं, असंख्यात द्वीन्द्रिय हैं, असंख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org