Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पंचम विशेषपद (पर्यायपद) : प्राथमिक [557 गया, किन्तु एक नारक की दूसरे नारक के साथ तुलना करके वह संख्या फलित की गई है। जैसे कि दस दृष्टियों के क्रम से वर्णन इस प्रकार है-(१) द्रव्यार्थता-द्रव्य दृष्टि से कोई नारक, अन्य नारकों से तुल्य है। अर्थात्-द्रव्यापेक्षया कोई नारक एक द्रव्य है, वैसे ही अन्य नारक भी एक द्रव्य है। निष्कर्ष यह कि किसी भी नारक को द्रव्य दृष्टि से एक ही कहा जाता है, उसकी संख्या एक से अधिक नहीं होती, अत: वह संख्यात है। (2) प्रदेशार्थता-प्रदेश की अपेक्षा से भी नारक जीव परस्पर तुल्य हैं / अर्थात्-जैसे एक नारक जीव के प्रदेश असंख्यात हैं, वैसे अन्य नारक के प्रदेश भी असंख्यात हैं, न्यूनाधिक नहीं। (3) अवगाहनार्थताअवगाहना (जीव के शरीर की ऊँचाई) की दृष्टि से विचार किया जाए तो एक नारक अन्य नारक से हीन, तुल्य या अधिक भी होता है, और वह असंख्यात-संख्यात भाग हीनाधिक या संख्यात-असंख्यातगुण हीनाधिक होता है। निष्कर्ष यह है कि अवगाहना की दृष्टि से नारक के असंख्यात प्रकार के पर्याय बनते हैं। (4) स्थिति की अपेक्षा से विचारणा भी अवगाहना की तरह ही है। अर्थात्-वह पूर्वोक्त प्रकार से चतु:स्थान हीनाधिक या तुल्य होती है / निष्कर्ष यह है कि स्थिति की दृष्टि से भी नारक के असंख्यात प्रकार के पर्याय बनते हैं। (5 से 8) कृष्णादि वर्ण, तथा गन्ध, रस, एवं स्पर्श को अपेक्षा से-वर्णादि की अपेक्षा से भी नारक के अनन्तपर्याय बनते हैं, क्योंकि एकगुण कृष्ण आदि वर्ण तथैव गन्ध, रस और स्पर्श से लेकर अनन्तगुण कृष्णादि वर्ण, तथा गन्ध, रस, और स्पर्श होना सम्भव है। इस प्रकार वर्णादि चारों के प्रत्येक प्रकार की दृष्टि से नारक के अनन्त पर्याय घटित हो सकने से उसके अनन्त पर्याय कहे हैं / (9.10) ज्ञान और दर्शन को अपेक्षा से---ज्ञान (अज्ञान) और दर्शन की दृष्टि से भी नारक के अनन्त पर्याय हैं, ऐसा शास्त्रकार कहते हैं। आचार्य मलयगिरि कहते हैं-इन दसों दृष्टियों का समावेश चार दृष्टियों में किया जा सकता है। जैसे-द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता का द्रव्य में, अवगाहना का क्षेत्र में, स्थिति का काल में तथा वर्णादि एवं ज्ञानादि का भाव में समावेश हो सकता है।' * इसी प्रकार आगे जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम अवगाहना, स्थिति, वर्णादि और ज्ञानादि को लेकर चौवीस दण्डक के जीवों के पर्यायों की विचारणा की गई है। * इसके पश्चात्-अजीव के दो भेद-अरूपी अजीव और रूपी अजीव करके रूपी अजीव के परमाणु, स्कन्ध, स्कन्धदेश और स्कन्धप्रदेश, यों चार प्रकार होते हुए भी यहाँ मुख्यतया परमाणुपुद्गल (निरंशी अंश) और स्कन्ध (अनेक परमाणुओं का एकत्रित पिण्ड) दो के ही पर्यायों का निरूपण किया गया है। * प्रथमपद में पुद्गल (रूपी अजीव), जो नाना प्रकारों में परिणत होता है, उसका निरूपण है, जबकि इस पद में, बताए गए रूपी अजीव-भेदों के पर्यायों की संख्या का निरूपण है। सर्वप्रथम समग्रभाव से रूपी अजीव के पर्यायों की संख्या अनन्त बता कर फिर परमाणु द्विप्रदेशी स्कन्ध, त्रिप्रदेशी स्कन्ध, यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के प्रत्येक के अनन्त पर्याय कहे हैं। इन सबके पर्यायों का विचार जीव की तरह द्रव्य, 1. पण्णवणासुत्त मू. पा. सू. 455 से 499 तक तथा पण्णवणासुत्त भा. 2 पंचमपद-प्रस्तावना पृ. 63-64 2. पग्णवणासुत्तं मूल पा. सू. 519, 440 तथा पण्णवणासुत्त भा. 2 पंचमपद की प्रस्तावना पृ. 62 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org