________________ 356 ] [ प्रज्ञापनासूत्र इसी प्रकार अजीवद्रव्य कोई पृथक एक ही द्रव्य नहीं है, परन्तु अनेक अजीव (अचेतन) द्रव्य हैं, वे सब जीव से भिन्न हैं, अतः उस अर्थ में उनकी समानता (एकता नहीं, अमुक अपेक्षा से एकता)' अजीवद्रव्य कहने से व्यक्त होती है। इस कारण वह सामान्य अजीवद्रव्यतिर्यक्सामान्य है / तथा इस तिर्यक्सामान्य के पर्याय, विशेष या भेद वे ही प्रस्तुत में जीव और अजीव के पर्याय, विशेष या भेद हैं, यह समझना चाहिए / संसारी जोवों में ककृत जो अवस्थाएँ, जिनके आधार से जीव पुदगलों से सम्बद्ध होता है, उस सम्बन्ध को लेकर जीव की विविध अवस्थाएँ–पर्याय बनती हैं। वे पौद्गलिक पर्याय भी व्यवहारनय से जीव की पर्याय मानी गई हैं। संसारी अवस्था में जीव और पुद्गल अभिन्नसे प्रतीत होते हैं, यह मानकर जीव के पर्यायों का वर्णन है। जैसे स्वतंत्र रूप से वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की विविधता के कारण पुद्गल के अनन्त पर्याय (सू. 519 में) बताए हैं, वैसे ही जब वे ही पुद्गल जीव से सम्बद्ध होते हैं, तब वे सब जीव के पर्याय (सू. 440 में) माने गए हैं, क्योंकि जब वे जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं, तब पुद्गल में होने वाले परिणमन में जीव भी कारण है, इस कारण वे पर्याय पुद्गल के होते हुए भी जीव के माने गए हैं। संसारी अवस्था में अनादिकाल से प्रचलित जीव और पुद्गल का कथंचित् अभेद भी है। कर्मोदय के कारण ही जीवों में आकार, रूप आदि की विविधता है, और नाना पर्यायों का सर्जन होता है / अत: जीव ज्ञानादिस्वरूप होते हुए भी वह अनन्तपर्याययुक्त है / * प्रस्तुत पद में जीव और अजीव द्रव्यों के भेदों और पर्यायों का निरूपण है। जीव-अजीव के भेदों के विषय में तो प्रथमपद में निरूपण था ही, किन्तु उन प्रत्येक भेदों में जो अनन्तपर्याय हैं, उनका प्रतिपादन करना इस पंचम पद की विशेषता है। प्रथम पद में भेद बताए गए, तीसरे पद में उनकी संख्या बताई गई, किन्तु तृतीयपद में संख्यागत तारतम्य का निरूपण मुख्य होने से किस विशेष की कितनी संख्या है, यह बताना बाकी था, अत: प्रस्तुत पद में उन-उन भेदों की तथा बाद में उन-उन भेदों के पर्यायों की संख्या भी बता दी गई है। सभी द्रव्यभेदों की पर्यायसंख्या तो अनन्त है, किन्तु भेदों की संख्या में कितने ही संख्यात हैं, असंख्यात हैं, तो कई अनन्त (वनस्पतिकायिक और सिद्धजीव) भी हैं।' जीवद्रव्य के नारक आदि भेदों के पर्यायों का विचार अनेक प्रकार से, अनेक दृष्टियों से किया गया है, और उनमें जैनदर्शनसम्मत अनेकान्त दृष्टि का उपयोग स्पष्ट है। जैसे-जीव के नारकादि जिन भेदों के पर्यायों का निरूपण है, उसमें निम्नोक्त दस दष्टियों का सापेक्ष वर्णन किया गया है, अर्थात्-नारकादि जीवों के अनन्तपर्यायों की संगति बताने के लिए इन दसों दष्टियों से पर्यायों की संख्या बताई गई है। उसमें कितनी ही दृष्टियों से संख्यात, तो कई दृष्टियों से असंख्यात और कई दृष्टियों से अनन्त संख्या होती है / अनन्तदर्शक दृष्टि को ध्यान में रखते हुए शास्त्रकार ने नारकादि प्रत्येक के पर्यायों को अनन्त कहा है, क्योंकि उस दृष्टि से सबसे अधिक पर्याय घटित होते हैं। तथा उन-उन संख्याओं का सीधा प्रतिपादन नहीं किया 1. 'एगे पाया' इत्यादि स्थानांगसूत्र वाक्य कल्पित एकता के हैं। 2. पण्णवणासुत्त मूल. सू. 439, 591 3. पण्णवणा. मूल, सू. 440 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org