________________ द्वितीय स्थानपद] [ 197 है। अतः सिद्धों के संस्थान की अनियतता पूर्वाकार की अपेक्षा से है, अाकार का प्रभाव होने के कारण नहीं / क्योंकि सिद्धों में संस्थान का एकान्ततः अभाव नहीं है।' सिद्धों का अवस्थान--जहाँ एक सिद्ध अवस्थित है, वहाँ अनन्त सिद्ध अवस्थित होते हैं / वे परस्पर अवगाढ़ होकर रहते हैं, क्योंकि अमूत्तिक होने से सिद्धों को परस्पर एक दूसरे में समाविष्ट होने में कोई बाधा नहीं पड़ती। जैसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एक दूसरे में मिले हुए लोक में अवस्थित हैं, इसी प्रकार अनन्त सिद्ध एक ही परिपूर्ण अवगाहनक्षेत्र में परस्पर मिलकर लोक में अवस्थित हैं। वे सभी सिद्ध लोकान्त से स्पृष्ट रहते हैं। नियम से अनन्त सिद्ध प्रात्मा के सर्वप्रदेशों से स्पृष्ट रहते हैं। इसका अर्थ यह है कि अनन्त सिद्ध ऐसे हैं, जो पूर्ण रूप से एक दूसरे से मिले हुए रहते हैं और जिनका स्पर्श देश-(किंचित्) प्रदेशों से है ऐसे सिद्ध तो उनसे भी असंख्यात गुणे अधिक हैं। क्योंकि अवगाढ प्रदेश असंख्यात हैं। सिद्ध, केवलज्ञान से सदैव उपयुक्त-सिद्ध भगवान् के केवलज्ञान-दर्शन का उपयोग सदैव लगा रहता है, इसलिए वे केवलज्ञानोपयुक्त होकर जानते हैं, अन्तःकरण प्रादि से नहीं, क्योंकि वे शुद्ध प्रात्ममय होने से अन्तःकरणादि से रहित हैं। सिद्ध : जीवधन कैसे ?--सिद्धों को जीवधन अर्थात् सघन आत्मप्रदेशों वाला, इसलिए कहा गया है कि सिद्धावस्था प्राप्त करने से पूर्व तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम काल में उनके मुख, उदर आदि रन्ध्र प्रात्मप्रदेशों से भर जाते हैं, कहीं भी आत्मप्रदेशों से वे रिक्त नहीं रहते / / // प्रज्ञापनासूत्र : द्वितीय स्थानपद समाप्त / 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 108 से 110 तक (ख) कहं मरुदेवामाणं ? नाभीतो जेण किंचिदूणा सा / तो किर पंचसयच्चिय अहवा संकोचो सिद्धा / / -भाष्यकार (ग) जेट्ठा उ पंचधणुसय-तणुस्स, मज्झा य सत्तहत्थस्स / देहत्तिभागहीणा जहनिया जा बिहत्थस्स // 1 // सत्तूसियं एसु सिद्धी जनप्रो कहमिहं बिहत्येसु ? सा किर तित्थयरेसु, सेयाणं सिझमाणाणं // 2 // ते पुण होज्ज बिहत्था कुम्मापुत्तादयो जहन्ने णं / / अन्ने संवट्टिय सत्तहत्थ सिद्धस्स हीणत्ति // 3 / / -भाष्यकार (घ) सुसिरपरिपूरणायो पुब्वागारबहावबत्थायो / संठाणमणित्थंत्थं जं भणिय मणिययागारं। एतोच्चिय पडिस्सेहो सिद्धाइगुणे सु दीयाईणं / जमणित्थंथं पवागाराबिवखाए नाभावो / / 2 / / -----भाष्य दीहं वा हस्से वा।२. प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org