________________ 272] [प्रज्ञापनासूत्र ग्राम और सभी समुद्र एक हजार योजन अवगाह वाले हैं / अतः नौ सौ योजन से नीचे मत्सी आदि तिर्यञ्चयोनिकस्त्रियों के स्वस्थान होने से वे प्रचुर संख्या में हैं / इस कारण उन्हें संख्यातगुणी कहा है। उनका क्षेत्र भी संख्यातगुणा अधिक है। अधोलोक की अपेक्षा तिर्यकलोक में तिर्यञ्चस्त्रियाँ संख्यातगुणी अधिक हैं। (3) मनुष्यगतिविषयक अल्पबहुत्व-क्षेत्रापेक्षया विचार करने पर त्रैलोक्य में (त्रिलोकस्पर्शी) मनुष्य सबसे कम हैं, क्योंकि ऊर्ध्वलोक से अधोलौकिक ग्रामों में उत्पन्न होने वाले और मारणान्तिक समुद्घात करने वालों में से कोई-कोई समुद्घातवश बाहर निकाले हुए स्वात्मप्रदेशों से तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं। कोई-कोई वैक्रिय या आहारक समुद्घात को प्राप्त होकर विशेष प्रयत्न के द्वारा बहुत दूर तक ऊपर और नीचे अपने प्रात्मप्रदेशों को फैलाते हैं, केवलीसमुद्घात को प्राप्त थोड़े-से मानव तीनों लोकों को स्पर्श करते हैं। इस कारण सबसे कम मनुष्य त्रिलोक में हैं। उनकी अपेक्षा ऊर्वलोक-तिर्यग्लोक संज्ञक दो प्रतरों को स्पर्श करने वाले मनुष्य असंख्यातगुणे हैं। वैमानिक देव अथवा अन्य काय वाले जीव यथासम्भव उर्वलोक से तिर्यक्लोक में मनुष्यरूप में उत्पन्न होते हैं, तब वे पूर्वोक्त दो प्रतरों का स्पर्श करते हैं। इसके अतिरिक्त विद्याधर आदि भी जब मेरु आदि पर गमन करते हैं, तब उनके शुक्र, शोणित आदि पुद्गलों में सम्मूच्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति होती है, और वे विद्याधर रुधिरादिपुद्गलों के साथ सम्मिश्र होकर जब लौटते हैं, तब पूर्वोक्त दो प्रतरों का स्पर्श करते हैं, वे संख्या में अधिक होते हैं, इस कारण असंख्यातगुणे हैं / इनकी अपेक्षा अधोलोक-तियक्लोक नामक दो प्रतरों को स्पर्श करने वाले मनुष्य संख्यातगुणे हैं, क्योंकि अधोलौकिक ग्रामों में स्वभावतः ही बहुत-से मनुष्यों का सद्भाव है / अतः जो तिर्यक्लोक से मनुष्यों या अन्य कायों से प्राकर अधोलौकिक ग्रामों में गर्भज मनष्य या सम्मच्छिम उत्पन्न होने वाले हैं, अथवा अधोलौकिक ग्रामों से या अधोलोकवर्ती किसी अन्य स्थान से तिर्यक्लोक में गर्भज या सम्मूच्छिम मनुष्य के रूप में उत्पन्न होते हुए मनुष्य पूर्वोक्त दो प्रतरों का स्पर्श करते हैं / अतएव इन्हें संख्यातगुणे कहे हैं। इनकी अपेक्षा अवलोक में मनुष्य संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि सौमनस आदि वनों में क्रीड़ा आदि करने के लिए प्रचुरतर विद्याधरों एवं चारणमुनियों का गमनागमन होता है, और उनके यथायोग रुधिरादिपुद्गलों के योग से सम्मूच्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति होती है। इनकी अपेक्षा भी अधोलोक में संख्यातगुणे मनुष्य हैं; क्योंकि अधोलोक स्वस्थान होने से वहाँ अधिकता होनी स्वाभाविक है / इनकी अपेक्षा भी तिर्यग्लोक में संख्यातगुणे मनुष्य अधिक हैं, क्योंकि तिर्यग्लोक का क्षेत्र संख्यातगुणा अधिक है, और मनुष्यों का वह स्वस्थान है, इस कारण अधिकता सम्भव है। मनुष्यस्त्रियों का क्षेत्र को अपेक्षा से अल्पबहुत्व--सबसे कम मनुष्यस्त्रियाँ तीनों लोक को स्पर्श करने वाली हैं, क्योंकि ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में उत्पन्न होने वाली मारणान्तिक-समुद्घातवश जब वे अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकालती हैं, अथवा जब वे वैक्रियसमुद्घात या केवलीसमुद्घात करती हैं, तब तीनों लोकों का स्पर्श करती हैं और ऐसी मनुष्यस्त्रियाँ अत्यन्त कम होती हैं, इस कारण सबसे थोड़ी मनुष्यस्त्रियाँ त्रैलोक्य में बताई गई हैं। इनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोकसंज्ञक दो प्रतरों का स्पर्श करने वाली स्त्रियाँ संख्यातगुणी होती हैं / वैमानिकदेव अथवा शेष कायवाले कोई जीव जब ऊर्वलोक से तिर्यग्लोक में मनुष्यस्त्री के रूप में उत्पन्न होने वाले होते हैं, तथा तिर्य ग्लोकगत मनुष्यस्त्रियाँ जब ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होते समय मारणान्तिक समुद्घात करती हैं, तब दूर तक ऊपर अपने आत्मप्रदेशों को फैलाती हैं, फिर भी तब तक जो कालगत नहीं हुई हैं, वे पूर्वोक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करती हैं, और वे दोनों प्रकार की स्त्रियाँ बहुत अधिक होती रूप में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org