________________ चउत्थं ठिइपयं चतुर्थ स्थितिपद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र के इस चतुर्थपद में जीवों के जन्म से लेकर मरण-पर्यन्त नारक आदि पर्यायों में अव्यवच्छिन्न रूप से कितने काल तक अवस्थान (स्थिति या टिकना) होता है ? , इसका विचार किया गया है। अर्थात् इस पद में जीवों के जो नारक, तिर्यच, मनुष्य, देव प्रादि विविध पर्याय हैं, उनकी आयु का विचार है / यों तो जीवद्रव्य (प्रात्मा) नित्य है, परन्तु वह जो नानारूप (नाना जन्म) धारण करता है, वे पर्यायें अनित्य हैं / वे कभी-न-कभी तो नष्ट होती ही हैं। इस कारण उनकी स्थिति का विचार करना पड़ता है। यही तथ्य यहाँ प्रस्तुत किया गया है / 'स्थिति' शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ भी इस प्रकार का है-प्रायकर्म की अनुभूति करता हुमा जीव जिस (पर्याय) में अवस्थित रहता है, वह स्थिति है। इसलिए स्थिति, आयुःकर्मानुभूति और जीवन, ये तीनों पर्यायवाची शब्द हैं।' ___ यद्यपि मिथ्यात्वादि से गृहीत तथा ज्ञानावरणीयादि रूप में परिणत कर्मपुद्गलों का जो अवस्थान है, वह भी स्थिति' नाम से प्रसिद्ध है, तथापि यहाँ नारक अादि व्यपदेश की हेतु 'आयुष्यकर्मानुभूति' ही 'स्थिति' शब्द का वाच्य है, क्योंकि नरकगति आदि तथा पंचेन्द्रियजाति आदि नामकर्म के उदय के आश्रित नारकत्व आदि पर्याय कहलाती है, किन्तु यहाँ नरक आदि क्षेत्र को अप्राप्त जीव नरकायु आदि के प्रथम समय के संवेदनकाल से ही नारकत्व आदि कहलाने लगता है। अतः उस-उस गति के प्रायुष्यकर्म की अनुभूति को ही स्थिति मानी गई है / प्रायुष्यकर्म की अनमति (प्राय) सिर्फ संसारी जीवों को ही होती है, इसलिए इस पद में संसारी जीवों की ही स्थिति का विचार किया गया है। सिद्ध तो सादि-अपर्यवसित होते हैं, अत: उनको अायु का विचार अप्राप्त होने से नहीं किया गया है तथा अजीवद्रव्य के पर्यायों की स्थिति का भी विचार इस पद में नहीं किया गया है ; क्योंकि अजीवों के पर्याय जीवों की तरह आयु की अनुभूति पर आश्रित नहीं हैं और न उनके पर्याय जीवों की आयु की तरह काल की दृष्टि से अमुक सीमा में निर्धारित किये जा सकते हैं। स्थिति (आयु) का विचार यहाँ सर्वत्र जघन्य और उत्कृष्ट, दो प्रकार से किया गया है। * प्रस्तुत पद में स्थिति का निर्देशक्रम इस प्रकार है--सर्वप्रथम जीव की उन-उन सामान्य पर्यायों को लेकर, तत्पश्चात् उनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद करके आयु का विचार किया गया है / 1. 'स्थीयते-अवस्थीयते अनया आयुःकर्मानुभूत्येति स्थितिः / स्थितिरायुःकर्मानुभूति वनमिति पर्यायाः / -प्रज्ञापना, म. वृत्ति, पृ. 169 2. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 169 (ख) पण्णवणा. भा. 2 प्रस्तावना, पृ. 58 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org