Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ चतुर्थ स्थितिपद ] [301 अन्तर्मुहूर्त की स्थिति कम कर देने पर पर्याप्त अवस्था की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम एक सागरोपम की होती है। आगे भी सर्वत्र इसी प्रकार समझ लेना चाहिए।' पूर्व-पूर्व की उत्कृष्ट स्थिति, आगे-आगे की जघन्य--पहले-पहले की नरकपृथ्वी की जो उत्कृष्ट स्थिति है, वही अगली-अगली नरकपृथ्वी को जघन्य स्थिति है / जैसे—प्रथम रत्नप्रभापृथ्वी की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है, वहीं द्वितीय शर्कराप्रभापृथ्वी की जघन्य स्थिति है।' देवों और देवियों की स्थिति की प्ररूपरणा 343. [1] देवाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई / [343-1 प्र.] भगवन् ! देवों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? [343-1. उ.] गौतम ! (देवों की स्थिति) जघन्य दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। [2] अपज्जत्तयदेवाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [343-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक देवों की कितने काल तक स्थिति कही गई है ? [343-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है, उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयदेवाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई, उफ्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई। [343-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक-देवों की कितने काल तक स्थिति कही गई है ? [343-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम की है ! 344. [1] देवीणं भंते ! केवतिय कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहणणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिग्रोवमाई। 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 170 (ख) नारगदेवा तिरिमणयगन्भजा जे असंखवासाऊ / एए अप्पज्जत्ता उववाए चेव बोद्धव्वा // 1 // सेसा य तिरिमणु या लद्धि पप्पोववायकाले य / दुहनो वि य भयइयव्वा पज्जत्तियरे य जिणवयणे // 2 // -~~-प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, प. 170 में उद्ध त 2. प्रज्ञापनासूत्र, प्रमेयबोधिनी टीका भा. 2, प्र.४५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org