________________ 270] [ प्रज्ञापनासूत्र विवेचन-चौवीसवाँ क्षेत्रद्वार : क्षेत्र को अपेक्षा से ऊर्ध्वलोकादिगत विविध जीवों का अल्पबहुत्व—प्रस्तुत 49 सूत्रों (सू. 276 से 324 तक) में क्षेत्र के अनुसार ऊर्व, अधः, तिर्यक् तथा त्रैलोक्यादि विविध लोकों में चौबीसदण्डकवर्ती जीवों के अल्पबहुत्व की विस्तार से चर्चा की गई है। __'खेत्ताणुवाएणं' की व्याख्या-क्षेत्र के अनुपात अर्थात् अनुसार अथवा क्षेत्र की अपेक्षा से विचार करना क्षेत्रानुपात कहलाता है। ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक प्रादि पदों की व्याख्या-जैनशास्त्रानुसार सम्पूर्ण लोक चतुर्दश रज्जपरिमित है। उसके तीन विभाग किए जाते हैं-ऊर्ध्वलोक, तिर्यग्लोक (मध्यलोक) और अधोलोक / रुचकों के अनुसार इनके विभाग (सीमा) निश्चित होते हैं / जैसे-रुचक के नौ सौ योजन नीचे और नौ सौ योजन ऊपर तिर्यक्लोक है। तिर्यक्लोक के नीचे अधोलोक है और तिर्यक्लोक के ऊपर ऊर्ध्वलोक है। ऊर्ध्वलोक कुछ न्यून सात रज्जू-प्रमाण है और अधोलोक कुछ अधिक सात रज्जू-प्रमाण है। इन दोनों के मध्य में 1800 योजन ऊँचा तिर्यग्लोक है। ऊर्ध्वलोक का निचला आकाश-प्रदेशप्रतर और तिर्यक्लोक का सबसे ऊपर का आकाश-प्रदेशप्रतर है, वही ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक कहलाता है। अर्थात रुचक के समभूभाग से नौ सौ योजन जाने पर, ज्योतिश्चक्र के ऊपर तिर्यग्लोकसम्बन्धी एकप्रदेशी आकाशप्रतर है, वह तियंग्लोक का प्रतर है। इसके ऊपर का एकप्रदेशी आकाशप्रतर ऊर्ध्वलोक-प्रतर कहलाता है। इन दोनों प्रतरों को ऊवलोक-तिर्यग्लोक कहते हैं। अधोलोक के ऊपर का एकप्रदेशी आकाशप्रतर और तिर्यग्लोक के नीचे का एकप्रदेशी आकाशप्रतर अधोलोक-तिर्यकलोक कहलाता है / त्रैलोक्य का अर्थ है–तीनों लोक; यानी तीनों लोकों को स्पर्श करने वाला। इस प्रकार क्षेत्र (समग्रलोक) के 6 विभाग समझने के लिए कर दिये हैं-(१) ऊर्ध्वलोक, (2) तिर्यग्लोक, (3) अधोलोक, (4) ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक, (5) अधोलोक-तिर्यक्लोक और (6) त्रैलोक्य / ' क्षेत्रानुसार लोक के उक्त छह विभागों में जीवों का अल्पबहुत्व-ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक में सबसे कम जीव हैं, क्योंकि यहाँ का प्रदेश (क्षेत्र) बहत थोडा है। उनकी अपेक्षा अधोलोक-तिर्यग्लोक में जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि विग्रहगति करते हुए या वहीं पर स्थित जीव विशेषाधिक ही हैं। उनकी अपेक्षा तिर्यक्लोक में जीव असंख्यातगुण है, क्योंकि ऊपर जिन दो क्षेत्रों का कथन किया गया है, उनकी अपेक्षा तिर्यक्लोक का विस्तार असंख्यातगुणा है। तिर्यग्लोक के जीवों की अपेक्षा तीनों लोकों का स्पर्श करने वाले जीव असंख्यातगुणे हैं / जो जीव विग्रहगति करते हुए तीनों लोकों को स्पर्श करते हैं, उनकी अपेक्षा यह कथन समझना चाहिए। उनकी अपेक्षा अवलोक में असंख्यातगुणे जीव इसलिए हैं कि उपपातक्षेत्र की वहाँ अत्यन्त बहुलता है / उनको अपेक्षा अधोलोकवर्ती जीव विशेषाधिक हैं; क्योंकि अधोलोक का विस्तार सात रज्जू से कुछ अधिक प्रमाण है / 2 क्षेत्रानुसार चार गतियों के जीवों का अल्पबहुत्व-(१) नरकगतोय अल्पबहुत्व-सबसे कम नरकगति के जीव त्रैलोक्य में अर्थात्-तीनों लोक को स्पर्श करने वाले हैं / यह शंका हो सकती है, 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय, वृत्ति, पत्रांक 144 2. (क) वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 144 (ख) 'सव्वत्थोवा जीवा नोपज्जत्ता-नोअपज्जता, अपज्जत्ता अणंतगुणा, पज्जत्ता संखेज्जगुणा' --प्रज्ञापना. मूलपाठ टिप्पण भा. 1, पद 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org