________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद ] [291 रत्नप्रभापृथ्वी के नारक असंख्यातगुणे हैं। वे अंगुलमात्र परिमित क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के द्वितीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल की जितनी प्रदेशराशि होती है उतनी श्रेणियों में रहे हुए आकाशप्रदेशों के बराबर हैं / (32) उनकी अपेक्षा खेचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्च पुरुष असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हई असंख्यात श्रेणियों के आकाशप्रदेशों के बराबर हैं / (33) उनकी अपेक्षा खेचर पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च स्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, * क्योंकि तिर्यञ्चों में पुरुष की अपेक्षा स्त्रियां तीन गुणी और तीन अधिक होती हैं।' (34) इनकी अपेक्षा स्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक पुरुष संख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे बृहत्तर प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों की प्राकाश-प्रदेशराशि के बराबर हैं / (35) इनकी अपेक्षा स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यचस्त्रियाँ पूर्वोक्त युक्ति से संख्यातगुणी हैं। (36) उनकी अपेक्षा जलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यचपुरुष संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि वे बृहत्तम प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यातश्रेणियों की आकाशप्रदेशराशि के तुल्य हैं। (37) उनकी अपेक्षा जलचर-तिर्यच पंचेन्द्रिय स्त्रियाँ पूर्वोक्त युक्ति से संख्यातगुणी हैं। (38-36) उनकी अपेक्षा वाणव्यन्तर देव एवं देवी उत्तरोत्तर क्रमश: संख्यातगुण हैं। क्योंकि संख्यात योजन कोटाकोटीप्रमाण सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने ही सामान्य व्यन्तरदेव हैं / देवियाँ देवों से बत्तीसगुणा और बत्तीस अधिक होती हैं। (40) उनकी अपेक्षा ज्योतिष्क देव (देवी सहित) संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि वे सामान्यतः 256 अंगुलप्रमाण सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने हैं / 2 (41) पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार इनसे ज्योतिष्क देवियाँ संख्यातगणी हैं। (42) इनकी अपेक्षा पर्याप्त चतुरिन्द्रय संख्यातगणे हैं, क्योंकि वे अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने हैं। (43-44-45) उनकी अपेक्षा स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यच नपुसक, जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचनपुसक, चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक, क्रमशः उत्तरोत्तर संख्यातगुणे हैं। (46 से 52) उनकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक, द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय-अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय-अपर्याप्तक, त्रीन्द्रिय-अपर्याप्तक और द्वीन्द्रिय-अपर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमश: विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये सब अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने प्रमाण में होते हैं, किन्तु अंगुल के असंख्यातभाग के असंख्यात भेद होते हैं। अतः अपर्याप्त-द्वीन्द्रिय पर्यन्त उत्तरोत्तर अंगुल का असंख्यातवां भागकम अंगल का असंख्यातवां भाग लेने पर कोई दोष नहीं। (53 से 68 तक) प्रत्येकशरीर बादर बनस्पतिकायिक-पर्याप्तक, वादर निगोद-पर्याप्तक, बादर पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक, बादर अप्कायिकपर्याप्तक, बादर वायुकायिक-पर्याप्तक, बादर तेजस्कायिक-अपर्याप्तक, प्रत्येकशरीर-बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक, बादर निगोद-अपर्याप्तक, बादर पृथ्वी कायिक-अपर्याप्तक, बादर अप्कायिक-अपर्याप्तक, बादर वायुकायिक-अपर्याप्तक, और सूक्ष्म तेजस्कायिक-अपर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमश: असंख्यातगणे हैं, उनकी अपेक्षा सूक्ष्म वायुकायिक-अपर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक-अपर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक-अपर्याप्तक उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, यह पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार समझ लेना चाहिए तथा अपर्याप्तक सूक्ष्म जीवों की अपेक्षा पर्याप्तक सूक्ष्म स्वभावतः 1. (क) 'तिगुणा तिरूवअहिआ तिरियाणं इत्यिो मुणेयम्वा / ' (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्र.क 165 2. (क) 'छपन्नदोसयंगुल सूइपएसेहि भाइयं पयरं / जोइसिएहि हीरइ / ' (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति. पत्रांक 166 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org