________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [285 क्योंकि इन दोनों प्रतरों को अनन्त पुद्गलद्रव्य और अनन्त जीवद्रव्य स्पर्श करते हैं। इन दोनों प्रतरों की अपेक्षा अधोलोक-तिर्यग्लोक नामक प्रतरों में कुछ अधिक द्रव्य हैं / उनको अपेक्षा ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे द्रव्य अधिक हैं, क्योंकि वह क्षेत्र असंख्यातगुणा विस्तृत है / उनको अपेक्षा अधोलोक में अनन्तगुणे अधिक द्रव्य हैं, क्योंकि अधोलोकिक ग्रामों में काल है, जिसका सम्बन्ध विभिन्न परमाणुओं, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, अनन्तप्रदेशी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के पर्यायों के साथ होने के कारण प्रत्येक परमाणु आदि द्रव्य अनन्त प्रकार का होता है / अधोलोक की अपेक्षा तिर्यग्लोक में संख्यातगुणे द्रव्य हैं, क्योंकि अधोलोकिक ग्राम-प्रमाण खण्ड कालद्रव्य के आधारभूत मनुष्यलोक में संख्यात पाए जाते हैं। दिशात्रों को अपेक्षा से सामान्यतः द्रव्यों का अल्पबहुत्व---सामान्यतया सबसे कम द्रव्य अधोदिशा में हैं, उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वदिशा में अनन्तगुणे हैं, क्योंकि ऊर्ध्वलोक में मेरुपर्वत का पांच सौ योजन का स्फटिकमय काण्ड है, जिसमें चन्द्र और सूर्य की प्रभा के होने से तथा द्रव्यों के क्षण आदि काल का प्रतिभाग होने से तथा पूर्वोक्त नीति से प्रत्येक परमाणु आदि द्रव्यों के साथ काल अनन्त होने से द्रव्य का अनन्तगुणा होना सिद्ध है। ऊर्ध्वदिशा की अपेक्षा उत्तरपूर्व-ईशानकोण में तथा दक्षिणपश्चिम-नैऋत्यकोण में असंख्यातगुणे द्रव्य हैं, क्योंकि वहाँ के क्षेत्र असंख्यातगुणा हैं, किन्तु इन दोनों दिशाओं में बराबर-बराबर ही द्रव्य हैं, क्योंकि इन दोनों का क्षेत्र बराबर है। इन दोनों की अपेक्षा दक्षिणपूर्व-आग्नेयकोण में तथा उत्तरपश्चिम-वायव्यकोण में द्रव्य विशेषाधिक हैं, क्योंकि इन दिशाओं में विद्युत्प्रभ एवं माल्यवान् पर्वतों के कूट के आश्रित कोहरे, अोस आदि श्लक्ष्ण पुद्गलद्रव्य बहुत होते हैं। इनकी अपेक्षा पूर्वदिशा में असंख्यातगुणा क्षेत्र अधिक होने से द्रव्य भी असंख्यातगुणे अधिक हैं। पूर्व की अपेक्षा पश्चिम दिशा में द्रव्य विशेषाधिक हैं, क्योंकि वहाँ अधोलोकिक ग्रामों में पोल होने के कारण बहुत-से पुद्गलद्रव्यों का सद्भाव है। उसकी अपेक्षा दक्षिण में विशेषाधिक द्रव्य हैं, क्योंकि वहाँ बहुसंख्यक भुवनों के रन्ध्र (पोल) हैं। दक्षिण से उत्तर दिशा में विशेषाधिक द्रव्य हैं, क्योंकि वहाँ मानससरोवर में रहने वाले जीवों के आश्रित' तैजस और कार्मण वर्गणा के पुद्गलस्कन्ध द्रव्य बहुत हैं। संख्यात-असंख्यात-अनन्तप्रदेशी-परमाणुपुद्गलों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्रों में द्रव्य, प्रदेश और द्रव्य-प्रदेश की दृष्टि से अल्पबहुत्व का विचार किया गया है / पाठ सुगम है / यहाँ सर्वत्र अल्पबहुत्व-भावना में पुद्गलों का वैसा स्वभाव ही कारण माना गया है।। क्षेत्र की प्रधानता से पुद्गलों का अल्पबहुत्व-एकप्रदेश में अवगाढ़ (आकाश के एक प्रदेश में स्थित) पुद्गल (द्रव्यापेक्षया) सबसे कम हैं / यहाँ क्षेत्र की प्रधानता से विचार किया गया है / इसलिए आकाश के एक प्रदेश में जो भी परमाणु, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी तथा अनन्तप्रदेशी स्कन्ध अवगाढ़ हैं, उन सब को एक ही राशि में परिगणित करके 'एकप्रदेशावगाढ़' कहा गया है। इस दृष्टि से संख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गल पूर्वोक्त की अपेक्षा द्रव्यविवक्षा से संख्यातगुणे हैं / यहाँ यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि आकाश के दो प्रदेशों में द्वयणुक भी रहता है, व्यणुक भी और असंख्यातप्रदेशी या अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी रहता है, किन्तु क्षेत्र की अपेक्षा से उन सबकी एक ही राशि है / इसी प्रकार तीन प्रदेशों में ज्यणुक से लेकर अनन्ताणुक स्कन्ध तक रहते हैं, उनकी भी एक राशि समझनी चाहिए। इस दृष्टि से एकप्रदेशावगाढ़ पुद्गलों की अपेक्षा द्विप्रदेशावगाढ़, द्विप्रदेशावगाढ़ की 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 159 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org