________________ 284] [प्रज्ञापनासूत्र तक के एकसमयस्थितिक से असंख्यातसमयस्थितिक पुद्गलों तक के तथा विविध वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श के पुद्गलों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। क्षेत्रानुसार पुद्गलों का प्रल्पबहुत्व-त्रैलोक्यस्पर्शी पुद्गल द्रव्य सबसे थोड़े इसलिए बताए हैं कि महास्कन्ध ही त्रैलोक्यव्यापी होते हैं और वे अल्प ही हैं। इनकी अपेक्षा ऊर्वलोक-तिर्यग्लोकसंज्ञक प्रतरद्वय में अनन्तगुणे पुद्गलद्रव्य हैं, क्योंकि इन दोनों प्रतरों में अनन्त संख्यातप्रदेशी, अनन्त असंख्यातप्रदेशी और अनन्त अनन्तप्रदेशी स्कन्ध स्पर्श करते हैं, इसलिए द्रव्यार्थतया वे अनन्तगुणे हैं / उनकी अपेक्षा अधोलोक-तिर्यग्लोक नामक दो प्रतरों में वे विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनका क्षेत्र पायामविष्कम्भ (लम्बाई-चौड़ाई) में कुछ विशेषाधिक है। उनसे तिर्यग्लोक में पुद्गल असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि इसका क्षेत्र (पूर्वोक्त से) असंख्यातगुणा है। उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणा हैं, क्योंकि तिर्यग्लोक के क्षेत्र से ऊर्ध्वलोक का क्षेत्र असंख्यातगुणा अधिक है। उनसे अधोलोक में विशेषाधिक पुद्गलद्रव्य हैं, क्योंकि ऊर्ध्वलोक से अधोलोक का क्षेत्र कुछ अधिक है। ऊर्ध्वलोक कुछ कम 7 रज्जूप्रमाण है, जबकि अधोलोक कुछ अधिक 7 रज्जूप्रमाण है। दिशात्रों के अनुसार पुद्गलद्रव्यों का अल्पबहुत्व सबसे कम पुद्गल ऊर्ध्व दिशा में है, क्योंकि रत्नप्रभापृथ्वी के समतल भूभाग वाले मेरुपर्वत के मध्य में जो अष्टप्रदेशात्मक रुचक से निकली हुई और लोकान्त को स्पर्श करने वाली चतुःप्रदेशात्मक (चार प्रदेश वाली) ऊर्ध्वदिशा है / उसमें सबसे कम पुद्गल हैं / अधोदिशा भी रुचक से निकलती है और वह चतुःप्रदेशात्मक और लोकान्त तक भी है, किन्तु ऊर्ध्वदिशा की अपेक्षा वह कुछ विशेषाधिक है, इसलिए वहाँ पुद्गल विशेषाधिक हैं / उनसे उत्तरपूर्व तथा दक्षिणपश्चिम में प्रत्येक में असंख्यातगुणे अधिक पुदगल हैं, स्वस्थान में तो दोनों तुल्य हैं, यद्यपि ये दोनों दिशाएँ रुचक से निकली हैं तथा मुक्तावली के आकार की हैं, तथापि ये तिर्यग्लोक, अधोलोक और ऊर्ध्वलोक के अन्त तक जा कर समाप्त होती हैं, इसलिए इनका क्षेत्र असंख्यातगुणा होने से वहाँ पुद्गल भी असंख्यातगुणे हैं। इनसे दक्षिणपूर्व और उत्तरपश्चिम दोनों में प्रत्येक में विशेषाधिक पुद्गल हैं, स्वस्थान में तो ये परस्पर तुल्य हैं। इनमें विशेषाधिक पुद्गल होने का कारण यह है कि सौमनस एवं गंधमादन पर्वतों के सात-सात कूटों (शिखरों) पर तथा विद्युत्प्रभ और माल्यवान् पर्वतों के नौ-नौ कूटों पर कोहरे, ओस आदि के सूक्ष्मपुद्गल बहुत होते हैं, इसलिए इन दोनों दिशाओं में पूर्वोक्त दिशाओं से पुद्गल विशेषाधिक हैं / इनसे पूर्व दिशा में असंख्येयगुणे हैं, क्योंकि पूर्व में क्षेत्र असंख्येयगुणा है। उनसे पश्चिम में विशेषाधिक हैं, क्योंकि अधोलोकिक ग्रामों में पोलार होने से वहाँ पुद्गल बहुत होते हैं। पश्चिम की अपेक्षा दक्षिण में विशेषाधिक हैं, क्योंकि वहाँ भवन तथा पोल अधिक हैं। उनसे उत्तर दिशा में विशेषाधिक है, क्योंकि उत्तर में संख्यातकोटा-कोटी योजन लम्बा-चौड़ा मानससरोवर है, जहाँ जलचर तथा काई, शैवाल आदि बहुत प्राणी हैं, उनके तैजस-कार्मणशरीर के पुद्गल अत्यधिक पाए जाते हैं। इस कारण पश्चिम से उत्तर में विशेषाधिक पुद्गल कहे गए हैं।' क्षेत्रानुसार सामान्यतः द्रव्यविषयक अल्पबहुत्व-क्षेत्र की अपेक्षा से सबसे कम द्रव्य त्रैलोक्य हैं. क्योंकि धर्मास्तिकाय. अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, महास्कन्ध और जीवास्तिकाय में से मारणान्तिक समुद्घात से अतीव समवहत जीव ही त्रैलोक्यस्पर्शी होते हैं और वे अल्प हैं। इसलिए ये सबसे कम हैं। इनकी अपेक्षा ऊर्ध्व लोक-तिर्यक्लोक नामक दो प्रतरों में अनन्तगुणे द्रव्य है, 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 158-159 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org