Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 2481 [प्रज्ञापनासूत्र [262 प्र.] भगवन् ! इन साकारोपयोग-युक्त और अनाकारोपयोग-युक्त जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [262 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प अनाकारोपयोग वाले जीव हैं, 2. (उनसे) साकारोपयोग वाले जीव संख्यातगुणे हैं। तेरहवाँ (उपयोग) द्वार // 13 // विवेचन तेरहवां उपयोगद्वार : उपयोग की दृष्टि से जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र (262) में साकारोपयोगयुक्त और अनाकारोपयोगयुक्त जीवों के अल्पबहुत्व की चर्चा की गई है। अनाकारोपयोग का काल थोड़ा होता है, जबकि साकारोपयोगकाल उससे असंख्यातगुणा अधिक होता है। इसीलिए कहा गया है कि पृच्छासमय में अनाकारोपयोग-(दर्शनोपयोग) काल थोड़ा होने से वे बहुत थोड़े पाए जाते हैं, उनकी अपेक्षा साकारोपयोग-(ज्ञानोपयोग) उपयुक्त जीव संख्यातगुणे होते हैं। क्योंकि साकारोपयोगकाल लम्बा होने से पृच्छा के समय वे बहुत संख्या में पाये जाते हैं। चौदहवाँ आहारद्वार : आहारक-अनाहारक जीवों का अल्पबहुत्व-- 263. एतेसिणं भंते ! जीवाणं पाहारगाणं प्रणाहारगाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ___ गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा अणाहारगा 1, पाहारगा असंखेज्जगुणा 2 / दारं 14 // [263 प्र.] भगवन् ! इन आहारकों और अनाहारकजीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [263 उ.] गौतम ! 1. सबसे कम अनाहारक जीव हैं, 2. (उनसे) आहारक जीव असंख्यातगुणे हैं। चौदहवाँ (आहार) द्वार // 14 // विवेचन-चौदहवाँ प्राहारद्वार : प्राहार की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र (263) में आहारक-अनाहारक जीवों के अल्पबहुत्व की चर्चा की गई है। सबसे थोड़े अनाहारक जीव हैं, क्योंकि विग्रहगति करते हुए जीव, समुद्घातप्राप्त केवली, और अयोगी सिद्ध जीव ही अनाहारक होते हैं। उनकी अपेक्षा आहारक जीव असंख्यात गुणे हैं / प्रश्न हो सकता है कि आहारक जीवों में वनस्पतिकायिक भी हैं और वे सिद्धों से अनन्त हैं, तो अनाहारकों से वे अनन्तगुणे क्यों नहीं बताए गए ? असंख्यातगुणे ही क्यों बताए गए ? इसका समाधान यह है कि सूक्ष्म निगोद सब मिलकर भी असंख्यात हैं, उसमें भी वे अन्तर्मुहूर्तसमय की राशि के तुल्य हैं, तथा सदैव विग्रहगति में ही रहते हैं, इसलिए उनमें अनाहारक भी बहुत अधिक होते हैं और वे समग्रजीवराशि के असंख्येयभाग के तुल्य होते हैं / अत: उनकी अपेक्षा आहारकजीव असंख्यातगुणे ही हैं, अनन्तगुणे नहीं। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 138 2. विग्गहगइमावन्ना केवलियो समुहया अजोगी य / सिद्धाय अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा // -प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 138 3. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 138 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org