________________ 250 ] [ प्रज्ञापनासूत्र जिनका संसार (भवभ्रमण) कुछ कम अपार्द्ध-पुद्गलपरावर्तनमात्र रह गया है। 'कायपरीत' कहते हैं--प्रत्येकशरीरी को। भवपरीत शुक्लपाक्षिक होते हैं और कायपरीत प्रत्येकशरीरी होते हैं / अपरीत उन्हें कहते हैं-~-जिनका संसार परीत-परिमित न हुआ हो, ऐसे जीव कृष्णपाक्षिक होते हैं। परीत प्रादि की दृष्टि से अल्पबहुत्व–पूर्वोक्त दोनों प्रकार के परीत जीव सबसे थोड़े हैं, क्योंकि समस्त जीवों की अपेक्षा शुक्लपाक्षिक एवं प्रत्येकशरीरी कम हैं। उनकी अपेक्षा नोपरीतनोअपरीत अर्थात् इन दोनों से अलग सिद्ध भगवन् हैं, जो कि अनन्त हैं, इसलिए अनन्तगुणे हैं और उनसे अपरीत यानी कृष्णपाक्षिक जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अकेले वनस्पतिकायिक जीव ही अनन्त हैं / वे सिद्धों से अनन्तगुणे हैं।' सत्रहवाँ पर्याप्तद्वार : पर्याप्ति की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहत्व 266. एएसि णं भंते ! जीवाणं पज्जत्ताणं अपज्जत्ताणं नोपज्जत्तनोअपज्जत्ताण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा नोपज्जत्तगनोअपज्जत्तगा 1, अपज्जत्तगा अणंतगुणा 2, पज्जत्तगा संखेज्जगुणा 3 / दारं 17 // [266 प्र.] भगवन् ! इन पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [266 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीव हैं, 2. (उनसे) अपर्याप्तक जीव अनन्तगुणे हैं, (और उनसे भी) 3. पर्याप्तक जीव संख्यातगुणे हैं। सत्रहवाँ (पर्याप्त) द्वार / / 17 / / विवेचन-सत्रहवाँ पर्याप्तद्वारः पर्याप्ति की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत (२६६वें) सूत्र में पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। पर्याप्ति की अपेक्षा से जीवों की न्यूनाधिकता-सबसे कम नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीव हैं, क्योंकि पर्याप्ति और अपर्याप्ति से रहित सिद्ध हैं, जो पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों से कम हैं। उनकी अपेक्षा से अपर्याप्तक अनन्तगणे हैं, क्योंकि साधारणवनस्पतिकायिक सिद्धों से अनन्तगणे हैं, जो सर्वकाल में अपर्याप्तक ही पाए जाते हैं / उनकी अपेक्षा पर्याप्तक जीव संख्यातगुणे हैं / अठारहवाँ सूक्ष्मद्वार : सूक्ष्म आदि की दृष्टि से जीवों का अल्पबहत्व-~-- 267. एएसि णं भंते ! जीवाणं सुहमाणं बादराणं नोसुहमनोबादराण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? ___ गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा णोसुहुमणोबादरा 1, बादरा अणंतगुणा 2, सुहुमा असंखेज्जगुणा 3 / दारं 18 // 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 139 2. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.