________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों विशेषाधिक हैं, क्योंकि जिन संज्ञी-तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों को अवधिज्ञान नहीं होता है, उन्हें भी आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान हो सकते हैं। इन दोनों ज्ञानों को परस्पर तुल्य कहने का कारण यह है कि ये दोनों ज्ञान परस्पर सहचर हैं। इन दोनों ज्ञानियों से केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि सिद्ध केवलज्ञानी होते हैं और वे अनन्त हैं। प्रज्ञान की अपेक्षा से अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े विभंगज्ञानी हैं, क्योंकि विभंगज्ञान मिथ्यादष्टि नैरयिकों व देवों और किन्हीं-किन्हीं तिर्यंचपंचेन्द्रियों और मनुष्यों को ही होता है / विभंगज्ञान की अपेक्षा मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान दोनों अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव भी मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी होते हैं, और वे अनन्त होते हैं / स्वस्थान में मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी दोनों तुल्य हैं, क्योंकि ये दोनों अज्ञान परस्पर सहचर हैं।। ज्ञानी और प्रज्ञानी दोनों का सामुदायिकरूप से अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े मनःपर्यवज्ञानी हैं, तथा उनसे आगे का अल्पबहुत्व पूर्ववत् ही पूर्वोक्त युक्ति से समझ लेना चाहिए / मति-श्रुतज्ञानियों से विभंगज्ञानी जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि देवगति और मनुष्यगति में सम्यग्दृष्टियों से मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणे हैं। तथा देवों और नारकों में जो सम्यग्दृष्टि होते हैं, वे अवधिज्ञानी और मिथ्यादष्टि विभंगज्ञानी होते हैं, इस दृष्टि से विभंगज्ञानी उनसे असंख्यातगुणे हैं। उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त होते हैं। उनसे मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि मतिश्रत-अज्ञानी वनस्पतिकायिकजीव भी होते हैं, और सिद्धों से भी अनन्तगुणे हैं / स्वस्थान में ये दोनों अज्ञान परस्पर तुल्य हैं। ग्यारहवाँ दर्शनद्वार : दर्शन को अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व 260. एतेसि णं भंते ! जीवाणं चक्खुदंसणोणं अचवखुदंसणीणं प्रोहिदलणोणं केवलदसणीण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा प्रोहिदसणी 1, चक्खुदंसणी असंखेज्जगुणा 2, केबलदंसणी अणंतगुणा 3, अचक्खुदंसणी अणंतगुणा 4 / दारं 11 // [260 प्र.] भगवन् ! इन चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [260 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े अवधिदर्शनी जीव हैं, 2. (उनसे) चक्षुदर्शनी जीव असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) केवल दर्शनी अनन्तगुणे हैं, (और उनसे भी) 4. अचक्षुदर्शनी जीव अनन्तगुणे हैं ! ___ ग्यारहवाँ (दर्शन) द्वार // 11 // विवेचन-ग्यारहवाँ दर्शनद्वार : दर्शन की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र (260) में चार दर्शनों की अपेक्षा से जीवों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। 1. 'जत्थ मइनाणं, तत्थ सुयनाण, जत्थ सुयनाणं, तत्थ मइनाणं' 2. 'जत्थ मइ-अन्नाणं, तत्थ सुय-अन्नाणं, जत्थ सुय-अन्नाणं तत्थ मइ-अन्नाणं / ' -प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 137 3. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 137 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org