Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 244] [ प्रज्ञापनासून जीव सिद्धों से अनन्तगुणे हैं। उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं, क्योंकि नीललेश्या वाले जीव कापोतलेश्या वालों से प्रचुरतर होते हैं / उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूततम हैं / उनकी अपेक्षा सामान्यतः सलेश्य जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि सलेश्य में नीललेश्यादि वाले सभी लेश्यावान् जीवों का समावेश हो जाता है।' नौवाँ दृष्टि (सम्यक्त्व) द्वार : तीन दृष्टियों की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व 256. एतेसि णं भंते ! जीवाणं सम्मट्ठिीणं मिच्छट्ठिीणं सम्मामिच्छादिट्ठीणं च कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ___ गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा सम्मामिच्छट्ठिी 1, सम्मट्ठिी अणंतगुणा 2, मिच्छट्टिी अणंतगुणा 3 / दारं // / [256 प्र.] भगवन् ! सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [256 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव हैं, 2. (उनसे) सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं और 3. (उनसे भी) मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं। नौवाँ दृष्टिद्वार // 6 // विवेचन-नौवां दृष्टि द्वार: तीन दृष्टियों की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र (256) में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि की अपेक्षा जीवों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। सबसे थोड़े सम्यगमिथ्या (मिश्र) दृष्टि जीव हैं, क्योंकि मिश्रदृष्टि के परिणाम का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है, अतएव बहुत ही अल्पकाल होने से प्रश्न के समय वे थोड़े से पाए जाते हैं। उनकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि जीव अनन्त गुणे हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं और वे सम्यग्दृष्टियों में ही सम्मिलित हैं। सम्यग्दृष्टियों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वनस्पतिकायिक आदि जीव सिद्धों से अनन्तगुणे हैं और वनस्पतिकायिक मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। दसवाँ ज्ञानद्वार : ज्ञान और प्रज्ञान की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व-- __257. एतेसि णं भंते ! जीवाणं प्राभिणिबोहियणाणीणं सुतणाणीणं प्रोहिणाणीणं मणपज्जवणाणीणं केवलणाणीण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मणपज्जवणाणी 1, प्रोहिणाणी असंखेज्जगुणा 2, आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी दो वि तुल्ला विसेसाहिया 3, केवलणाणी अणंतगुणा 4 / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 135-136 (ख) ....."पम्हलेसा गब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणिया संखेज्जगुणा, तिरिक्खजोणिणीयो संखेज्जगुणायो, तेउलेसा गब्भवतियतिरिक्खजोणिया संखेज्जगणा, तेउलेसानो तिरिक्खजोणिणीओ संखेज्जगुणायो।' प्रज्ञापना. महादण्डक (म. वृ. पृ. 136) 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 137 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org