________________ 242] [प्रज्ञापनासूत्र वनस्पतिकायिक जीव अनन्त है, जो सब नपुसकवेदी ही हैं। उनकी अपेक्षा सामान्यतः सवेदी जीव विशेषाधिक है, क्योंकि स्त्री-पुरुष-नपुसकवेदी सभी जीवों का उनमें समावेश हो जाता है।' सप्तम कायद्वार : कषायों की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहत्व 254. एतेसि णं भंते ! जीवाणं सकसाईणं कोहकसाईणं माणकसाईणं मायकसाईणं लोभकसाईणं अकसाईण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा अकसायी 1, माणकसायी अणंतगुणा 2, कोहकसायी विसेसाहिया 3, मायकसाई विसेसाहिया 4, लोहकसाई विसेसाहिया 5, सकसाई विसेसाहिया 6 / दारं 7 // [254 प्र.] भगवन् ! इन सकषायी, क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी और अकषायी जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [254 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े जीव अकषायी हैं, 2. (उनसे) मानकषायी जीव अनन्तगुणे हैं, 3. (उनसे) क्रोधकषायी जीव विशेषाधिक है, 4. उनसे मायाकषायी जीव विशेषाधिक हैं, 5. उनसे लोभकषायी विशेषाधिक हैं और (उनसे भी) 6. सकषायी जीव विशेषाधिक है। विवेचन-सप्तम कषायद्वारः कषायों की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र(२५४) में कषाय की अपेक्षा से जीवों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है / ___ कषायों की अपेक्षा जीवों की न्यूनाधिकता अकषायी-कषायपरिणाम से रहित जीव सबसे कम हैं, क्योंकि कतिपय क्षीणकषाय आदि गुणस्थानवी मनुष्य एवं सिद्ध जीव ही कषाय से रहित होते हैं / उनसे मानकषायी जीव अनन्तगुणे इसलिए हैं कि छहों जीव-निकायों में मानकषाय पाया जाता है / उनसे क्रोधकषाय वाले, मायाकषाय वाले एवं लोभकषाय वाले क्रमशः उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं, क्योंकि क्रोधादिकषायों के परिणाम का काल यथोत्तर विशेषाधिक है / पूर्व-पूर्व कषायों का उत्तरोत्तर कषायों में क्रमशः सद्भाव है ही तथा लोभकषायी की अपेक्षा सकषायी जीव विशेषाधिक है, क्योंकि सामान्य कषायोदय वाले जीव कुछ अधिक ही हैं, उनमें मानादि कषायोदय वाले सभी जीवों का समावेश हो जाता है। सकषायी शब्द का विशेषार्थ-कषाय शब्द से कषायोदय अर्थ ग्रहण करना चाहिए। इस दृष्टि से सकषाय का अर्थ होता है कषायोदयवान् या जिसमें वर्तमान में कषाय विद्यमान है वह, अथवा जिसमें विपाकावस्था को प्राप्त कषायकर्म के परमाणु अपने उदय को प्रदर्शित कर रहे हैं, वह जीव / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 134-135 (ख) तिरिक्खजोणियपुरिसेहितो तिरिक्खजोणिय-इत्थीओ तिगुणीओ, तिरूवाहियाओ य। तहा मणुस्स पुरिसेहितो मणुस्सइत्थीओ सत्तावीसगुणीओ सत्तावीसावुत्तराओ य, तथा देवपुरिसेहितो देवित्थीओ बत्तीसगुणाओ बत्तीसरूवुत्तराओ॥ -जीवाभिगमसूत्र 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 135 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org