Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तइयं बहुवत्तव्वयपयं (अप्पाबहुत्तंपयं) तृतीय बहुवक्तव्यपद (अल्पबहुत्वपद) प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र का यह तृतीय पद है, इसके दो नाम हैं-'बहुवक्तव्यपद' और 'अल्पबहुत्वपद' / * तत्त्वों या पदार्थों का संख्या की दृष्टि से भी विचार किया जाता है। उपनिषदों में वेदान्त का दृष्टिकोण बताया है कि विश्व में एक ही तत्त्व-'ब्रह्म' है, समग्र विश्व उसी का 'विवत' या 'परिणाम' है, दूसरी ओर सांख्यों का मत है कि जीव तो अनेक हैं, परन्तु अजीव एक ही है / बौद्धदर्शन अनेक चित्त' और अनेक 'रूप' मानता है। जैनदर्शन में षड्द्रव्यों की दृष्टि से संख्या का निरूपण ही नहीं, किन्तु परस्पर एक दूसरे से तारतम्य, अल्पबहुत्व का भी निरूपण किया गया है / अर्थात् कौन किससे अल्प है, बहुत है, तुल्य है या विशेषाधिक है ? इसका पृथक्-पृथक् अनेक पहलुओं से विचार किया गया है / प्रस्तुत पद में यही वर्णन है। ___ इसमें दिशा, गति, इन्द्रिय, काय, योग आदि से लेकर महादण्डक तक सत्ताईस द्वारों के माध्यम से केवल जीवों का ही नहीं. यथाप्रसंग धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का. पदगलास्तिकाय का वर्गीकरण करके उनके अल्प-बहत्व का विचार किया गया है। षटखण्डागम में गति आदि 14 द्वारों से अल्पबहुत्व का विचार है / ' * सर्वप्रथम (सू. 213-224 में) दिशाओं की अपेक्षा से सामान्यतः जीवों के, फिर पृथ्वीकायादि पांच स्थावरों के, तीन विकलेन्द्रियों के, नैरयिकों के, सप्त नरकों के नैरयिकों के, तिर्यचपंचेन्द्रिय जोवों के, मनुष्यों के, भवनपति-वाणव्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिक देवों के पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व का एवं सिद्धों के भी अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। / तत्पश्चात् सू. 225 से 275 तक दूसरे से तेईसवें द्वार तक के माध्यम से नरकादि चारों गतियों के. इन्द्रिय-अनिन्द्रिययुक्त जीवों के, पर्याप्तक-अपर्याप्तकों के, षटकायिक-अकायिक. अपर्याप्तकपर्याप्तक, पर्याप्तक-अपर्याप्तकों के, बादर-सूक्ष्मषट्कायिकों के, सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी काययोगी-अयोगी के, सवेदक-स्त्रीवेदक-पुरुषवेदक-नपुंसक वेदक-अवेदकों के, सकषायी-क्रोध 1. (क) पण्णवणासुत्तं भाग-२, प्रस्तावना पृष्ठ 52 (ख) प्रज्ञापना. मलय, वृत्ति, पत्रांक 113 (ग) षट्खण्डागम पुस्तक 7, पृ. 520 (घ) प्रज्ञापना.-प्रमेयबोधिनी टीका भा. 2, पृ. 203 2. पण्णवणासुत्तं भाग-१, पृ. 81 से 24 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org