________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद ] [ 221 विवेचन-चतुर्थ कायद्वार : काय की अपेक्षा से सकायिक, प्रकायिक एवं षटकायिक जीवों का अल्पवहुत्व--प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 232 से 236 तक) में काय की अपेक्षा षट्कायिक, सकायिक, तथा अकायिक जीवों का समुच्चयरूप में, इनके अपर्याप्तकों तथा पर्याप्तकों का एवं पृथक्-पृथक् एवं समुदित पर्याप्तक, अपर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व प्रतिपादित किया गया है। (1) षटकायिक, सकायिक, प्रकायिक जीवों का अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े त्रसकायिक हैं, क्योंकि त्रसकायिकों में द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव हैं, वे अन्य कायों (पृथ्वीकायादि) की अपेक्षा अल्प हैं। उनसे तेजस्कायिक असंख्येयगुणे हैं, क्योंकि वे असंख्येय लोकाकाश-प्रदेश-प्रमाण हैं। उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रचुर असंख्येय लोकाकाश-प्रदेश-प्रमाण हैं। उनसे अप्कायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रचुरतर असंख्येय लोकाकाश-प्रदेश-प्रमाण हैं / उनसे वायुकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रचुरतम असंख्येय लोकाकाश-प्रदेश-प्रमाण हैं। उनकी अपेक्षा अकायिक (सिद्ध भगवान्) अनन्तगुणे हैं, क्योंकि सिद्ध जीव अनन्त हैं। उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वे अनन्त लोकाकाशप्रदेशराशि-प्रमाण हैं। उनसे भी सकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें पृथ्वीकायिक आदि सभी कायवान् प्राणियों का समावेश हो जाता है / (2) सकायिक आदि अपर्याप्तकों का अल्पबहुत्व-इनमें सबसे अल्प त्रसकायिक अपर्याप्तक से लेकर क्रमश: सकायिक अपर्याप्तक पर्यन्तविशेषाधिक हैं / यहाँ तक के अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। (3) सकायिक प्रादि पर्याप्तकों का अल्पबहुत्व-इनका अल्पबहुत्व भी पूर्ववत् युक्ति से समझ लेना चाहिए। (4) सकायिकादि प्रत्येक के पर्याप्तक-अपर्याप्तकों का अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े सकायिक अपर्याप्तक हैं. उनसे सकायिक पर्याप्तक संख्येयगणे हैं। इसी तरह आगे के सभी सत्रपाठ सुगम हैं। इन सब में अपर्याप्तक सबसे थोड़े और उनकी अपेक्षा पर्याप्तक संख्यातगुणे बताए गए हैं, इसका कारण यह है कि पर्याप्तकों के प्राश्रय से अपर्याप्तकों का उत्पाद होता है। अर्थात् पर्याप्तक अपर्याप्तकों के अाधारभूत हैं। (5) समुच्चय में सकायिक प्रादि समुदित पर्याप्तकों-अपर्याप्तकों का अल्पबहुत्व- इनमें सबसे कम त्रसकायिक पर्याप्तक हैं, उनसे त्रसकायिक अपर्याप्तक असंख्यात गणे हैं, क्योंकि पर्याप्त द्वीन्द्रियादि से अपर्याप्त द्वीन्द्रियादि असंख्यातगुणे अधिक हैं / उनसे तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुणे हैं, क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाशप्रदेश-प्रमाण हैं। उनसे पृथ्वीकायिक, अप्कायिक एवं वायुकायिक अपर्याप्तक क्रमश: विशेषाधिक है। पृथ्वीकाय के अपर्याप्तकों की प्राय अधिक होने से वे तेजस्कायिक अपर्याप्त से अधिक हैं। उनसे अप्काय के अपर्याप्तक बहुत अधिक होने से विशेषाधिक हैं। उनसे वायुकायिक अपर्याप्तक पूर्वोक्त युक्ति से विशेषाधिक है / उनसे पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वायुकायिक पर्याप्तक क्रमशः विशेषाधिक हैं, क्योंकि अपर्याप्तकों की अपेक्षा पर्याप्तक विशेषाधिक होते हैं। प्रागे वनस्पति काय के अपर्याप्तक अनन्तगुणे पर्याप्तक संख्यातगुणे तथा सकायिक पर्याप्त उनसे संख्यातगुणे हैं। इसका कारण पहले बता चुके हैं / ' यद्यपि इस सूत्र (सू. 236) के अल्पबहुत्व में 15 पद हैं, जिनका उल्लेख अन्य प्रतियों में है, किन्तु वृत्तिकार ने प्रज्ञापनावृत्ति में केवल 12 पदों का ही निर्देश किया है / अत: 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 123 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org