________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [237 1. समुच्चय में सूक्ष्म जीवों का अल्पबहुत्व-सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव सबसे अल्प हैं, वे असंख्यात लोकाकाश प्रदेश के बराबर है। इनकी अपेक्षा सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक है, क्योंकि वे प्रचुर असंख्यात लोकाकाश प्रदेशों के बराबर हैं। इनसे सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रचरतर असंख्येय लोकाकाश प्रदेशों के बराबर हैं। इनसे सूक्ष्म वायुकायिक विशेषाधिक हैं; क्योंकि वे प्रचरतम असंख्यात लोकाकाश प्रदेश-प्रमाण हैं। उनकी अपेक्षा सूक्ष्म निगोद असंख्यातगुणे हैं / जो अनन्तजीव एक शरीर के आश्रय में रहते हैं, वे निगोद जीव कहलाते हैं। निगोद दो प्रकार के होते हैं-सूक्ष्म और बादर / सूरणकन्द आदि में बादर निगोद हैं, सूक्ष्म निगोद समस्त लोक में व्याप्त हैं। वे एक-एक गोलक में असंख्यात-असंख्यात होते हैं / इसलिए वे वायुकायिकों से असंख्यात. गुणे हैं। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अनन्तगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येकनिगोद में अनन्त-अनन्त जीव होते हैं। उनकी अपेक्षा सामान्य सूक्ष्मजीव विशेषाधिक है, क्योंकि सूक्ष्म पृथ्वीकाय आदि का भी उनमें समावेश हो जाता है। 2. सूक्ष्म-अपर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व-सूक्ष्म अपर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व भी पूर्वोक्त क्रम से समझ लेना चाहिए। 3. सूक्ष्म पर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व-इसके अल्पबहुत्व का क्रम भी पूर्ववत् है / 4. सूक्ष्म से लेकर सूक्ष्मनिगोद तक के पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवों का पृथक-पृथक् अल्पबहुत्व-इनके प्रत्येक के अल्पबहुत्व में सूक्ष्म अपर्याप्तक सबसे कम हैं और उनसे सूक्ष्म पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं। सूक्ष्म जीवों में अपर्याप्तकों की अपेक्षा पर्याप्तक जीव चिरकालस्थायी रहते हैं। इसलिए वे सदैव अधिक संख्या में पाए जाते हैं। 5. समुदितरूप से सूक्ष्म पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व--सबसे अल्प सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त हैं, कारण पहले बता चुके हैं। उनसे उत्तरोत्तर क्रमश: सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक हैं ; विशेषाधिक का अर्थ है--थोड़ा अधिक; न दुगुना, न तिगुना। इनकी विशेषाधिकता का कारण पहले कहा जा चुका है। उनकी (सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त की) अपेक्षा सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, अपर्याप्त से पर्याप्त संख्यातगुणे अधिक होते हैं, यह पहले कहा जा चुका है। अतः उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्तक एवं सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः विशेषाधिक हैं, उनसे सक्ष्म निगोद-अपर्याप्तक असंख्यातगूगे हैं, क्योंकि वे अतिप्रचर संख्या में हैं। उनसे सक्ष्म निगोद पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, क्योंकि सूक्ष्म जीवों में अपर्याप्तों से पर्याप्त सामान्यतः संख्यातगुणे अधिक होते हैं। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येक निगोद में वे अनन्त-अनन्त होते हैं। उनसे सामान्यतः सूक्ष्म अपर्याप्त जीव विशेषाधिक हैं; क्योंकि सूक्ष्म पृथ्वीकायादि का भी उनमें समावेश हो जाता है। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, इसका कारण पहले कहा जा चुका है / उनकी अपेक्षा सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि सूक्ष्म पृथ्वीकायादि पर्याप्तकों का भी उनमें समावेश है। उनसे सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें सूक्ष्म पर्याप्तकों-अपर्याप्तकों, सभी का समावेश हो जाता है। इस प्रकार सूक्ष्माश्रित पांच सूत्र हुए। अब बादराश्रित पांच सूत्र इस प्रकार हैं-- 6. समुच्चय में बादर जीवों का अल्पबहुत्व-सबसे कम बादर त्रसकायिक हैं, क्योंकि द्वीन्द्रियादि ही बादर त्रस हैं, और वे शेष कायों से अल्प हैं। उनसे बादर तेजस्कायिक असंख्यातगुणे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org