________________ 212] [ प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! सम्वत्थोवाओ मणुस्सीमो 1, मणुस्सा असंखेज्जगणा 2, नेरइया असंखेज्जगुणा 3, तिरिक्खजोणिणोप्रो असंखेज्जगुणाम्रो 4, देवा असंखेज्जगुणा 5, देवीप्रो संखेज्जगुणानो 6, सिद्धा अणंतगुणा 7, तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा 8 / दारं 2 // [226 प्र.] भगवन् ! इन नै रयिकों, तिर्यंचों, तिर्यचिनियों, मनुष्यों, मनुष्यस्त्रियों, देवों, देवियों और सिद्धों का पाठ गतियों की अपेक्षा से, संक्षेप में, कौन किनसे अल्प हैं, बहुत हैं, तुल्य हैं अथवा विशेषाधिक हैं ? [226 उ.] गौतम ! 1. सबसे कम मानुषी (मनुष्यस्त्री) हैं, 2. (उनसे) मनुष्य असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) तिर्यचिनियां असंख्यातगुणी हैं, 5. (उनसे) देव घसंख्यातगुणे हैं, 6. (उनसे) देवियां संख्यातगुणी हैं, 7. (उनसे) सिद्ध अनन्तगुणे हैं, और 8. (उनसे भी) तियंचयोनिक अनन्तगुणे हैं। द्वितीय द्वार // 2 // विवेचन-द्वितीय गतिद्वार-पांच या पाठ गतियों की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 225-226) में नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्धि, इन पांच गतियों की अपेक्षा से तथा नारक, तिर्यंच, तिर्यंचनी, मनुष्य, मानुषी, देव, देवी और सिद्ध, इन पाठ गतियों की अपेक्षा से जीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। पांच गतियों की अपेक्षा से अल्पवहुत्व-गतियों की अपेक्षा से सबसे थोड़े मनुष्य हैं, क्योंकि वे 96 छेदनक-छेद्यरा शिप्रमाण ही हैं। उनके नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे अंगुलप्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के प्रथम वर्गमूल का द्वितीय वर्गमूल से गुणाकार करने पर जो प्रदेशराशि होती है, उतनी ही धनीकृतलोक की एकप्रादेशिकी श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतना ही नारकों का प्रमाण है / नैरयिकों की अपेक्षा देव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि व्यन्तर और ज्योतिष्क देव प्रतर की असंख्यातभागवर्ती श्रेणियों के आकाशप्रदेशों की राशि के तुल्य हैं / सिद्ध उनसे भी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वे अभव्यों से अनन्तगुणे हैं / सिद्धों से तिर्यञ्च अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अकेले वनस्पतिकायिक जीव ही सिद्धों से अनन्तगुणे हैं।' पाठ बोलों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व-पांच गतियों के ही अवान्तर भेद करके प्रस्तुत पाठ गतियां बता कर उनकी दृष्टि से अल्पबहुत्व का निरूपण करते हैं सबसे कम मानुषी (मनुष्यस्त्रियां) हैं, क्योंकि उनकी संख्या संख्यातकोटाकोटी प्रमाण है / उनसे मनुष्य असंख्यातगुणे अधिक हैं; क्योंकि इनमें वेद की विवक्षा न करने से सम्मूच्छिम मनुष्यों का भी समावेश हो जाता है और सम्मूर्च्छनज मनुष्य उच्चार, प्रस्रवण, वमन आदि से लेकर नगर की नालियों (मोरियों) आदि (14 स्थानों) में असंख्येय उत्पन्न होते हैं। मनुष्यों की अपेक्षा नारक असंख्यातगणे हैं, क्योंकि मनुष्य उत्कृष्ट संख्या में श्रेणी के असंख्यातवें भागगत प्रदेशों की राशि प्रमाण पाए जाते हैं, जबकि नारक अंगुलमात्र क्षेत्र के प्रदेशों की राशिवर्ती तृतीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूलप्रमाण-श्रेणिगत आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं / अत: वे उनसे असंख्यातगुणे हैं। नारकों से तिर्यचिनी असंख्यातगुणी हैं, क्योंकि वे प्रतरासंख्येय भाग में रहे हुए असंख्यातश्रेणियों के आकाशप्रदेशों के समान हैं / देव इनसे भी असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे असंख्येयगुणप्रतर के असंख्येयभागवर्ती असंख्येय श्रेणिगतप्रदेशों की राशि 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय, वृत्ति, पत्रांक 119 Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org