Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [211 और उनसे भी विशेषाधिक हैं, क्योंकि कृष्णपाक्षिकों का वहाँ अधिकतर गमन होता है। ईशान, सनत्कुमार एवं माहेन्द्र कल्प के देवों का भी दिशा की अपेक्षा से अल्पबहुत्व इसी प्रकार है और उनका कारण भी पूर्ववत् ही समझ लेना चाहिए। ब्रह्मलोककल्प के देव सबसे कम पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में हैं, क्योंकि :बहुसंख्यक कृष्णपाक्षिक दक्षिण दिशा में उत्पन्न होते हैं और शुक्लपाक्षिक थोड़े ही होते हैं। दक्षिणदिशा में उनकी अपेक्षा असंख्यातगुणे देव हैं, क्योंकि वहाँ बहुत कृष्णपाक्षिक उत्पन्न होते हैं / इसी प्रकार लान्तक, महाशुक्र एवं सहस्रार कल्प के देवों का (दिशाओं की अपेक्षा) अल्पबहुत्व एवं कारण पूर्ववत् समझ लेना चाहिए / सहस्रारकल्प के बाद ऊपर के कल्पों के तथा नौ ग्रेवेयक एवं पांच अनुत्तर विमानों के देव चारों दिशाओं में समान हैं, क्योंकि वहाँ मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं। (18) सिद्धजीवों का अल्पबहुत्व-सबसे अल्प सिद्ध दक्षिण और उत्तर में हैं, क्योंकि मनुष्य ही सिद्ध होते हैं, अन्य जीव नहीं। सिद्ध होने वाले मनुष्य चरम समय में जिन आकाश प्रदेशों में अवगाढ़ (स्थित) होते हैं, उन्हीं आकाशप्रदेशों की दिशा में ऊपर जाते हैं, उसी सीध में ऊपर जाकर वे लोकाग्न में स्थित हो जाते हैं / दक्षिणदिशा में पांच भरतक्षेत्रों में तथा उत्तर में पांच ऐरावत क्षेत्रों में मनुष्य अल्प हैं, क्योंकि सिद्धक्षेत्र अल्प है। फिर सुषम-सुषमा आदि प्रारों में सिद्धि प्राप्त नहीं होती / इस कारण दक्षिण और उत्तर में सिद्ध सबसे कम हैं। पूर्व दिशा में उनसे असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि भरत और ऐरावत क्षेत्र की अपेक्षा पूर्वविदेह संख्यातगुणा विस्तृत है, इसलिए वहाँ मनुष्य भी संख्यातगुणे हैं और वहाँ से सर्वकाल में सिद्धि होती रहती है। उनसे भी पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं; क्योंकि अधोलौकिक ग्रामों में मनुष्यों को अधिकता है।' द्वितीय गतिद्वार : पांच या पाठ गतियों की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व 225. एएसि णं भंते ! नेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं देवाणं सिद्धाण य पंचगति' समासेणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वस्थोवा मणुस्सा 1, नेरइया असंखेज्जगुणा 2, देवा असंखेज्जगुणा 3, सिद्धा अणंतगणा 4, तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा 5 / [225 प्र.] भगवन् ! नारकों, तिर्यंचों, मनुष्यों, देवों और सिद्धों की पांच गतियों की अपेक्षा से संक्षेप में कौन किनसे अल्प हैं, बहुत हैं, तुल्य हैं अथवा विशेषाधिक हैं ? / [225 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े मनुष्य हैं, 2. (उनसे) नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) देव असंख्यातगुणे हैं, 4. उनसे सिद्ध अनन्तगुणे हैं और 5. (उनसे भी) तिर्यंचयोनिक जीव अनन्तगुणे हैं। 226. एतेसि णं भंते ! नेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीणं मणस्साणं मस्सीणं देवाणं देवीणं सिद्धाण य प्रगति समासेणं कतरे कतरेहितो प्रप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 116 से 119 तक 2. 'पंचगति अणुवाएणं समासेणं' यह पाठान्तर मिलता है। -सं. 3. 'अट्ठमति अणुवाएणं समासेणं' यह पाठान्तर मिलता है। सं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org