________________ 196 ] / प्रज्ञापनासूत्र चरमभव में सिद्धों का संस्थान-अन्तिम भव में जो भी दीर्घ (500 धनुष), ह्रस्व (दो हाथ प्रमाण) अथवा विचित्र प्रकार का मध्यम संस्थान (आकार) उनका होता है, सिद्धावस्था में उससे तीसरा भाग कम आकार (संस्थान) रह जाता है, क्योंकि सिद्धावस्था में मुख, पेट, कान आदि के छिद्र भी भर जाते हैं; आत्मप्रदेश सधन हो जाते हैं / तात्पर्य यह है कि भवपरित्याग से कुछ पहले सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाती नाम तीसरे शुक्लध्यान के बल से मुख, उदर आदि के छिद्र भर जाने से जो त्रिभागन्यून संस्थान रह जाता है, वही संस्थान सिद्धावस्था में बना रहता है। सिद्धों की अवगाहना-जिन सिद्धों की चरमभव में अन्तिम समय में 500 धनुष की अवगाहना होती है, उनकी विभागन्यून होने पर 333, धनुष की होती है, यह सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना है / इस सम्बन्ध में एक शंका है, कि जैन इतिहासप्रसिद्ध नाभिकुलकर की पत्नी मरुदेवी सिद्ध हुई हैं। नाभिकुलकर के शरीर की अवगाहना 525 धनुष की थी, और इतनी ही अवगाहना मरुदेवी की थी; क्योंकि प्रागमिक कथन है-'संहनन, संस्थान और ऊंचाई कुलकरों के समान ही समझनी चाहिए।' अतः सिद्धिप्राप्त मरुदेवी के शरीर की अवगाहना में से तीसरा भाग कम किया जाए तो वह 350 धनष सिद्ध होता है। ऐसी स्थिति में ऊपर जो उत्कृष्ट अवगाहना 3331 धनुष बतलाई है, उसके साथ इसकी संगति कैसे बैठेगी? इसका समाधान यह है कि मरुदेवी के शरीर की अवगाहना नाभिराज से कुछ कम होना सम्भव है; क्योंकि उत्तम संस्थान वाली स्त्रियों को अवगाहना उत्तम संस्थान वाले पुरुषों की अवगाहना से अपने अपने समय की अपेक्षा से कुछ कम होती है उक्ति के अनुसार मरुदेवी की अवगाहना 500 धनुष की मानी जाए तो कोई दोष नहीं। इसके अतिरिक्त मरुदेवी हाथी के हौदे पर बैठी-बैठी सिद्ध हुई थी, अतएव उनका शरीर उस समय सिकुड़ा हुआ था। इस कारण अधिक अवगाहना होना संभव नहीं है। इस प्रकार सिद्धों की जो उत्कृष्ट अवगाहना ऊपर कही गई है, उसमें विरोध नहीं पाता। सिद्धों की मध्यम अवगाहना चार हाथ पूर्ण और एक हाथ में विभाग कम है। आगम में जघन्य सात हाथ की अवगाहना वाले जीवों को सिद्धि बताई गई है, इस दृष्टि से यह अवगाहना मध्मम न हो कर जघन्य सिद्ध होती है. इस शंका का समाधान यह है कि सात हाथ की अवगाहना वाले जीवों की जो सिद्धि कही गई है, वह तीर्थंकर की अपेक्षा से समझनी चाहिए। सामान्य केवली तो इससे कम अवगाहना वाले भी सिद्ध होते हैं। ऊपर जो अवगाहना बताई गई है, वह सामान्य की अपेक्षा से ही है, तीर्थंकरों की अपेक्षा से नहीं। सिद्धों की जघन्य अवगाहना एक हाथ और पा की है। यह जघन्य अवगाहना कूर्मापुत्र प्रादि की समझनी चाहिए, जिनके शरीर की अवगाहना दो हाथ की होती है। भाष्यकार ने कहा है—'उत्कृष्ट अवगाहना 500 धनुष वालों की अपेक्षा से, मध्यम अवगाहना 10 द्वाथ के शरीर वालों की अपेक्षा से और जघन्य अवगाहना दो हाथ के शरीर वालों की अपेक्षा से कही गई है, जो उनके शरीर से त्रिभागन्यून होती है।' सिद्धों का संस्थान अनियत-जरामरणरहित सिद्धों का आकार (संस्थान) अनित्थंस्थ होता है। जिस प्रकार को इस प्रकार का है, ऐसा न कहा जा सके, वह अनित्थंस्थ----यानी अनिर्देश्य कहलाता है। मुख एवं उदर आदि के छिद्रों के भर जाने से सिद्धों के शरीर का पहले वाला आकार बदल जाता है, इस कारण सिद्धों का संस्थान अनित्थंस्थ कहलाता है, यही भाष्यकार ने कहा है। आगम में जो यह कहा गया है कि 'सिद्धात्मा न दीर्घ हैं, न ह्रस्व हैं' आदि कथन भी संगत हो जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org