________________ द्वितीय स्थानपद] [195 अभाव हो जाने से भाववेद भी नहीं रहता; इसलिए इन्हें प्रवेदी कहा है। अवेदणा-साता और असातावेदनीय कर्म का अभाव होने से वे वेदना से रहित होते हैं / 'निम्ममा प्रसंगा य' ममत्व से तथा बाह्य एवं प्राभ्यन्तर संग (आसक्ति या परिग्रह) से रहित होने के कारण वे निर्मम और प्रसंग होते हैं / संसारविप्पमुक्का-संसार से वे सर्वथा मुक्त और अलिप्त हैं, ऊपर उठे हुए हैं / पदेसनिव्वत्तसंठाणा-सिद्धों में जो आकार होता है, वह पौद्गलिक शरीर के कारण नहीं होता, क्योंकि शरीर का वहाँ सर्वथा अभाव है, अत: उनका संस्थान (प्राकार) आत्मप्रदेशों से ही निष्पन्न होता है। सम्वकालतित्ता--सर्वकाल यानी सादि-अनन्तकाल तक वे तृप्त हैं, क्योंकि औत्सुक्य से सर्वथा निवृत्त होने से वे परमसंतोष को प्राप्त हैं / 'अतुलं सासयं प्रवाबाहं व्वाणं सुहं पत्ता=सिद्ध भगवान् अतुल-उपमातीत-अनन्यसदृश शाश्वत तथा अव्याबाध (किसी प्रकार की लेशमात्र भी बाधा न होने से) निर्वाण (मोक्ष) संबंधी-सूख को प्राप्त हैं। 'सिद्धत्तिय' -सित यानी बद्ध जो अष्टप्रकारक कर्म. उसे जिन्होंने ध्मात-भस्मोक्रत कर दिया है. वे सिद्ध / सामान्यतया जो कर्म, शिल्प, विद्या, मंत्र, योग, पागम, अर्थ, यात्रा, अभिप्राय, तप और कर्मक्षय, इन सबसे सिद्ध होता है, उसे भी उस-उस विशेषणयुक्त कहते हैं, किन्तु यहाँ इन सबकी विवक्षा न करके एक 'कर्मक्षयसिद्ध' की विवक्षा की गई है / शेष सबको निरस्त करने हेतु 'बुद्ध' शब्द का प्रयोग किया गया है। बुद्ध का अर्थ है----अज्ञाननिद्रा में प्रसुप्त जगत् को स्वयं जिन्होंने तत्त्वबोध देकर जागृत किया है, सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी होने से उनका स्वभाव ही बोधरूप है। परोपदेश के बिना ही केवलज्ञान के द्वारा स्वतः वस्तुस्वरूप या जोवादितत्त्वों को जान लिया है। अर्हन्त भगवान् भी 'बुद्ध' होते हैं, इसलिए विशेषण दिया हैपारगता-जो संसार से या समस्त प्रयोजनों से पार हो चुके हैं / अतएव कृतकृत्य हैं / अक्रमसिद्धों का निराकरण करने के लिए यहाँ कहा गया है-'परंपरगता' =जो परम्परागत हैं। अर्थात्---जो ज्ञानदर्शन-चारित्र रूप परम्परा से अथवा मिथ्यात्व से लेकर यथासंभव चतुर्थ, षष्ठ, आदि गुणस्थानों को पार करके सिद्ध हुए हैं / अमरा=पायुकर्म से सर्वथा रहित होने से वे अजर-अमर हैं। देह के प्रभाव में जन्म, जरा, मरण आदि के बन्धनो से विमुक्त है। जन्मजरामरणादि हो दू:ख रूप है और सिद्ध इन सब दुःखों से पार हो चुके हैं / इसलिए कहा गया है--णित्थिन्नसव्वदुक्खा-जाति-जरा-मरणबंधणो विमुक्का' / सिद्धों के 'असरीरा', व्वाणमुवगया, उम्मुक्ककम्मकवचा, सव्वकालतित्ता आदि विशेषण प्रसिद्ध हैं, इनके अर्थ भी स्पष्ट हैं। _ 'अलोए पडिहता सिद्धा' की व्याख्या-सिद्ध भगवान् लोकाग्र के आगे अलोकाकाश होने से अलोक के कारण प्रतिहत हो (रुक) जाते हैं। गति में निमित्त कारण धर्मास्तिकाय है। वह लोकाकाश में ही है, अलोकाकाश में नहीं होता। इसलिए ज्यों ही आलोकाकाश प्रारम्भ होता है, सिद्धों की गति में रुकावट या जाती है। इस प्रकार वे धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण प्रतिहत हो जाते हैं और मनुष्य क्षेत्र का परित्याग करके एक ही समय में अस्पृशद्गति से लोक के अग्रभाग (ऊपरी भाग) में स्थित हो जाते हैं 13 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 108 से 112 तक 2. (क) सितं बद्ध अष्टप्रकारं कर्मध्यातं भस्मीकृतं यैस्ते सिद्धाः / (ख) 'कम्मे सिप्पे य विज्जाए, मते जोगे य आगमे। अत्थजताभिप्पाए, तवे कम्मक्खए इय।।' 3. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति. पत्रांक 108 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org