________________ द्वितीय स्थानपद इस भव को त्यागते समय अन्तिम समय में (त्रिभागहीन जितने) प्रदेशों से सघन संस्थान (आकार) था, वही संस्थान वहाँ (लोकान में सिद्ध अवस्था में) रहता है, ऐसा जानना चाहिए।॥१६२।। (जिनकी यहाँ पांच सौ धनुष की उत्कृष्ट अवगाहना थी, उनकी वहाँ) तीन सौ तेतीस धनुष और एक धनुष के तीसरे भाग जितनी अवगाहना होती है / यह सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना कही गई है / / 163 // (पूर्ण) चार रत्नि (मुण्ड हाथ) और त्रिभागन्यून एक रत्नि, यह सिद्धों की मध्यम अवगाहना कही है, ऐसा समझना चाहिए / / 164 // एक (पूर्ण) रत्नि और आठ अंगुल अधिक जो अवगाहना होती है, यह सिद्धों की जघन्य अवगाहना कही है / / 165 // (अन्तिम) भव (चरम शरीर) से त्रिभाग हीन (कम) सिद्धों की अवगाहन होती है / जरा और मरण से सर्वथा विमुक्त सिद्धों का संस्थान (ग्राकार) अनित्थंस्थ होता है / अर्थात् 'ऐसा है' यह नहीं कहा जा सकता // 166 / / / जहाँ (जिस प्रदेश में) एक सिद्ध है, वहाँ भवक्षय के कारण विमुक्त अनन्त सिद्ध रहते हैं / वे सब लोक के अन्त भाग (सिरे) से स्पृष्ट एवं परस्पर समवगाढ़ (पूर्ण रूप से एक दूसरे में समाविष्ट) होते हैं / / 176 / / एक सिद्ध सर्वप्रदेशों से नियमतः अनन्त सिद्धों को स्पर्श करता(स्पृष्ट हो कर रहता) है / तथा जो देश-प्रदेशों से स्पृष्ट (हो कर रहे हुए) हैं, वे सिद्ध तो (उनसे भी) असंख्यातगुणा अधिक हैं / / 168 / / सिद्ध भगवान् अशरीरी हैं, जीवधन (सघन प्रात्मप्रदेश वाले) हैं तथा ज्ञान और दर्शन में उपयुक्त (सदैव उपयोगयुक्त) रहते हैं; (क्योंकि) साकार (ज्ञान) और अनाकार (दर्शन) उपयोग होना, यही सिद्धों का लक्षण है / / 166 / / केवलज्ञान से (सदैव) उपयुक्त (उपयोगयुक्त) होने से वे समस्त पदार्थों को, उनके समस्त गुणों और पर्यायों को जानते हैं तथा अनन्त केवलदर्शन से सर्वतः [समस्त-पदार्थों को सर्वप्रकार से) देखते हैं / / 170 // अव्याबाध को प्राप्त (उपगत) सिद्धों को जो सुख होता है, वह न तो (चक्रवर्ती आदि) मनुष्यों को होता है, और न ही (सर्वार्थसिद्धपर्यन्त) समस्त देवों को होता है / / 171 / / देवगण के समस्त सुख को सर्वकाल के साथ पिण्डित (एकत्रित या संयुक्त) किया जाय, फिर उसको अनन्त गुणा किया जाय तथा अनन्त वर्गों से वर्गित किया जाए तो भी वह मुक्ति-सुख को नहीं पा सकता (उसकी बराबरी नहीं कर सकता) // 172 / / एक सिद्ध के (प्रतिसमय के) सुखों की राशि, यदि सर्वकाल से पिण्डित (एकत्रित) की जाए, और उसे अनन्तवर्गमूलों से भाग दिया (कम किया) जाए, तो वह (भाजित = न्यूनकृत) सुख भी (इतना अधिक होगा कि) सम्पूर्ण आकाश में नहीं समाएगा / / 173 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org