________________ 192] [ प्रज्ञापनासूत्र [211 प्र.] भगवन् ! सिद्धों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! सिद्ध कहाँ निवास करते हैं ? [211 उ.] गौतम ! सर्वार्थसिद्ध महाविमान की ऊपरी स्तूपिका के अग्रभाग से बारह योजन ऊपर बिना व्यवधान के, ईषत्प्राग्भारा नामक पृथ्वी कही है, जिसकी लम्बाई-चौड़ाई पैंतालीस लाख योजन है / उसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख, तीस हजार, दो सौ उनचास योजन से कुछ अधिक है। ईषत्प्रारभारा-पृथ्वी के बहुत (एकदम) मध्यभाग में (लम्बाई-चौड़ाई में) आठ योजन का क्षेत्र है, जो पाठ योजन मोटा (ऊँचा) कहा गया है। उसके अनन्तर (सभी दिशाओं और विदिशाओं में)' मात्रा-मात्रा से प्रर्थात्-अनुक्रम से प्रदेशों की कमी होते जाने से, हीन (पतली) होती-होती वह सबसे अन्त में मक्खी के पंख से भी अधिक पतली, अंगुल के असंख्यातवें भाग मोटी कही गई है। ईषत्प्रारभारा-पृथ्वी के बारह नाम कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) ईषत्, (2) ईषत्प्रारभारा, (3) तनु, (4) तनु-तनु, (5) सिद्धि, (6) सिद्धालय, (7) मुक्ति, (8) मुक्तालय (9) लोकाग्र, (10) लोकाग्र-स्तुपिका, या (11) लोकाग्रप्रतिवाहिनी (बोधना) और (12) सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्वसुखावहा / / ईषत्प्राग्भारा-पृथ्वी श्वेत है, शंखदल के निर्मल चूर्ण के स्वस्तिक, मृणाल, जलकण, हिम, गोदुग्ध तथा हार के समान वर्ण वाली, उत्तान (उलटे किये हुए) छत्र के आकार में स्थित, पूर्णरूप से अर्जुनस्वर्ण के समान श्वेत, स्फटिक-सी स्वच्छ, चिकनी, कोमल, घिसी हुई, चिकनी की हुई (मृष्ट), निर्मल, निष्पंक, निरावरण छाया (कान्ति) युक्त, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतमय, प्रसन्नताजनक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप (सर्वांगसुन्दर) है। ईषत्प्रारभारा-पृथ्वी से निःश्रेणीगति से एक योजन पर लोक का अन्त है / उस योजन का जो ऊपरी गम्यूति है, उस गव्यूति का जो ऊपरी छठा भाग है, वहाँ सादि-अनन्त, अनेक जन्म, जरा, मरण, योनिसंसरण (गमन), बाधा (कलंकली भाव), पुनर्भव (पुनर्जन्म), गर्भवासरूप वसति तथा प्रपंच से अतीत (अतिक्रान्त) सिद्ध भगवान् शाश्वत अनागतकाल तक रहते हैं / / [सिद्धविषयक गाथाओं का अर्थ-] वहाँ (पूर्वोक्त सिद्धस्थान में) भी वे (सिद्ध भगवान्) वेदरहित, वेदनारहित, ममत्वरहित, (बाह्य-प्राभ्यन्तर-) संग (संयोग या आसक्ति) से रहित, संसार (जन्म-मरण) से सर्वथा विमुक्त एवं (प्रात्म) प्रदेशों से बने हुए आकार वाले हैं // 158 // सिद्ध कहाँ प्रतिहत रुक जाते हैं ? सिद्ध किस स्थान में प्रतिष्ठित (विराजमान) हैं ? कहाँ शरीर को त्याग कर, कहाँ जा कर सिद्ध होते हैं ? ||156 / / (आगे) अलोक के कारण सिद्ध (लोकान में) रुके हुए (प्रतिहत) हैं। वे लोक के अग्रभाग (लोकाग्र) में प्रतिष्ठित हैं तथा यहाँ (मनुष्यलोक में) शरीर को त्याग कर वहाँ (लोक के अग्रभाग में) जा कर सिद्ध (निष्ठितार्थ) हो जाते हैं // 160 / / दीर्घ अथवा ह्रस्व, जो अन्तिमभव में संस्थान (आकार) होता है, उससे तीसरा भाग कम सिद्धों की अवगाहना कही गई है / / 161 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org