________________ 194] [प्रज्ञापनासूत्र जैसे कोई म्लेच्छ (भारण्यक अनार्य) अनेक प्रकार के नगर-गुणों को जानता हुआ भी उसके सामने कोई उपमा न होने से कहने में समर्थ नहीं होता / / 174 / / इसी प्रकार सिद्धों का सुख अनुपम है। उसकी कोई उपमा नहीं है। फिर भी कुछ विशेष रूप से इसकी उपमा (सदृशता) बताऊंगा, इसे सुनो / / 175 / / जैसे कोई पुरुष सर्वकामगुणित भोजन का उपभोग करके प्यास और भूख से विमुक्त हो कर ऐसा हो जाता है, जैसे कोई अमृत से तृप्त हो / वैसे ही सर्वकाल में तृप्त अतुल (अनुपम), शाश्वत, एवं अव्याबाध निर्वाण-सुख को प्राप्त सिद्ध भगवान् (सदैव) सुखी रहते हैं / / 176-177 / वे मुक्त जीव सिद्ध हैं, बुद्ध हैं, पारगत हैं, परम्परागत हैं, कर्मरूपी कवच से उन्मुक्त हैं, अजर, अमर और प्रसंग हैं। उन्होंने सर्वदुःखों को पार कर दिया है। वे जन्म जरा, मरण के बन्धन से सर्वथा मुक्त, सिद्ध (होकर) अव्याबाध एवं शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं / / 178-179 / / विवेचन-सिद्धों के स्थान प्रादि का निरूपण-प्रस्तुत गाथावहुल सूत्र (सू.२११) में शास्त्रकार ने सिद्धों के स्थान, उसकी विशेषता, उसके पर्यायवाचक नाम, सिद्धों के गुण, अवगाहना सुख तथा उनकी विशेषता आदि का निरूपण किया है। ईषत्प्रागभारा पृथ्वी के अन्वर्थक पर्यायवाची नाम--(१)संक्षेप में कहने के लिए 'ईषत्' नाम है। (2) थोड़ी-सी आगे को झुकी हुई होने से ईषत्प्राग्भरा है। (3) शेष पृथ्वियों की अपेक्षा पतली होने से 'तनु' नाम है / (4) जगत् प्रसिद्ध पतली मक्खी की पांख से भी पतली होने से इसका 'तनुतन्वी' नाम है। (5) सिद्ध क्षेत्र के निकट होने से इसका नाम 'सिद्धि' है, (6) सिद्ध क्षेत्र के निकट होने से उपचार से इसका नाम 'सिद्धालय' भी है। (7-8) इसी प्रकार 'मुक्ति' और 'मुक्तालय' नाम भी सार्थक हैं। (6) लोक के अग्रभाग में स्थित होने से 'लोकान' नाम है। (10) लोकाग्र की स्तूपिकासमान होने से इसका नाम 'लोकाग्रस्तूपिका' भी है 1 (11) लोक के अग्रभाग में होने से उसके आगे जाना रुक जाता है, इसलिए एक नाम 'लोकान-प्रतिवाहिनी' भी है / (12) समस्त प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए निरुपद्रवकारी भूमि होने से 'सर्व प्राण-भूत-जीव-सत्वसुखावहा' नाम भी सार्थक है।' सिद्धों के कुछ विशेषणों की व्याख्या-'सादीया अपज्जवसिता' = सादि-अपर्यवसित-अनन्त / प्रत्येक सिद्ध सर्वकर्मों का सर्वथा क्षय होने पर ही सिद्ध-अवस्था प्राप्त करता है। इस कारण से सिद्ध सादि (आदि युक्त) हैं, किन्तु सिद्धत्व प्राप्त कर लेने पर कभी उसका अन्त नहीं होता, इस कारण उन्हें अपर्यवसित-'अनन्त' कहा है। इस विशेषण के द्वारा 'अनादिशद्ध' / पुरुष की मान्यता का निराकरण किया गया है। सिद्धों के रागद्वेषादि विकारों का समूल विनाश हो जाने के कारण उनका सिद्धत्वदशा से प्रतिपात नहीं होता, क्योंकि पतन के कारण रागादि हैं, जो उनके सर्वथा निर्मूल हो चुके हैं। जैसे बीज के जल जाने पर उससे अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही संसारबीजरागद्वेषादि के विनष्ट हो जाने से पुनः संसार में आना और जन्ममरण पाना नहीं होता। इसीलिए उन्हें 'अणेगजाति-जरा-मरण-जोणि-संसार-कलंकलीभाव-पुणभव-गम्भवासवसही-पपंचसमतिकता' कहा गया है। अर्थ स्पष्ट है / अवेदा = सिद्ध भगवान् स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद (काम) से अतीत होते हैं। अर्थात्-शरीर का अभाव होने से उनमें द्रव्यवेद नहीं रहता और नोकषायमोहनीय का 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 107 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org