________________ 144 ] [प्रज्ञापनासूत्र अशुभ (अनिष्ट) नरक (नारकावास) हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ होती हैं / यहीं तमस्तमःप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नारकों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे नारकावास) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, समुद्धात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं तथा स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! इन्हीं (पूर्वोक्त स्थलों) में तमस्तमःपृथ्वी के बहुत-से नैरयिक निवास करते हैं; जो कि काले, काली प्रभा वाले, (भयंकर) गंभीररोमाञ्चकारी, भयंकर, उत्कृष्ट त्रासदायक (अातंक उत्पन्न करने वाले), वर्ण से अत्यन्त काले कहे हैं / __ वे (नारक वहाँ) नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, सदैव परस्पर त्रास पहुँचाये हुए, नित्य (दुःख से) उद्विग्न, तथा सदैव अत्यन्त अनिष्ट तत्सम्बद्ध नरकभय का सतत साक्षात् अनुभव करते हुए जीवनयापन करते हैं। [संग्रहणी गाथाओं का अर्थ--] (नरकपृथ्वियों की क्रमशः मोटाई एक लाख से ऊपर की संख्या में)-१. अस्सी (हजार), 2. बत्तीस (हजार), 3. अट्ठाईस (हजार), 4. बीस (हजार), ठारह (हजार), 6. सोलह (हजार) और 7. सबसे नीचली की पाठ (हजार), (सबके साथ 'योजन' शब्द जोड़ देना चाहिए।) / / 133 / / / (नारकावासों का भूमिभाग---) (ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर छठी नरक तक: एक लाख से ऊपर की संख्या में).-१. अठहत्तर (हजार). 2. तीस (हज छव्वीस (हजार), 4. अठारह (हजार), 5. सोलह (हजार), और 6. छठी नरकपृथ्वी में--चौदह (हजार) ये सब एक लाख योजन से ऊपर (की संख्याएँ) हैं / और 7. सातवीं तमस्तमा नरकपृथ्वी में ऊपर और नीचे साढ़े बावन-साढ़े बावन हजार छोड़ कर मध्य में तीन हजार योजनों में नरक (नारकावास) होते हैं, ऐसा कहा है / / 134-135 // (नारकावासों की संख्या) (छठी नरक तक लाख की संख्या में)-१. (प्रथम पृथ्वी में) तीस (लाख), 2. (दूसरी में) पच्चीस (लाख), 3. (तीसरी में) पन्द्रह (लाख), 4. (चौथी पृथ्वी में) दस लाख, 5. (पांचवीं में) तीन (लाख), तथा 6. (छठी पृथ्वी में) पांच कम एक (लाख) और 7. (सातवीं नरकपृथ्वी में) केवल पांच ही अनुत्तर नरक (नारकावास) हैं / / 136 // विवेचन-नैरयिकों के स्थानों की प्ररूपणा–प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 167 से 174 तक) में सामान्य नैरयिकों तथा तत्पश्चात् क्रमशः पृथक्-पृथक् सातों नारकों के नैरयिकों के स्थानों की संख्या तथा उन स्थानों के स्वरूप एवं उन स्थानों में रहने वाले नारकों की प्रकृति एवं परिस्थिति पर प्रकाश डाला गया है। पाठों सूत्रों में उल्लिखित निरूपण कुछ बातों को छोड़ कर प्रायः एक सरीखा है। नारकावासों की संख्या-सातों नरकों के नारकावासों की कुल मिला कर 84 लाख संख्या होती है; जिसका विवरण संग्रहणी गाथाओं में दिया गया है। इसके अतिरिक्त नारक कहाँ (किस प्रदेश में) रहते हैं ?, इसका विवरण भी पूर्वोक्त संग्रहणी गाथाओं में दिया है, जैसे कि-१ हजार योजन ऊपर और 1 हजार योजन नीचे छोड़ कर बीच के एक लाख अठहत्तर हजार योजन प्रदेश में प्रथम पृथ्वी के नारक रहते हैं; इत्यादि / सातों पृथ्वियों के नारकों के स्थानादि का वर्णन प्रायः समान है। 1. देखिये संग्रहणी गाथाएँ–पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1, पृ. 54-55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org