________________ द्वितीय स्थानपद [ 185 सामाणियसंगहणीगाहा चउरासीइ 1 असीई 2 बावत्तरि 3 सत्तरी य 4 सट्ठी य 5 / पण्णा 6 चत्तालीसा 7 तीसा 8 वीसा 6-10 दस सहस्सा 11-12 // 156 / / एते चेव प्रायरक्खा चउगुणा / [206-2] यहीं अच्युतावतंसक में देवेन्द्र देवराज अच्युत निवास करता है। इसका सारा वर्णन (सू. 205-2 में अंकित) प्राणत की तरह, यावत् विचरण करता है, तक कहना चाहिए / विशेष यह है कि अच्युतेन्द्र तीन सौ विमानावासों का, दस हजार सामानिक देवों का तथा चालीस हजार प्रात्मरक्षक देवों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है। (द्वादश कल्प-विमानसंख्या-संग्रहणीगाथामों का अर्थ---क्रमशः) 1. बत्तीस लाख, 2. अट्ठाईस लाख, 3. बारह लाख, 4. पाठ लाख, 5. चार लाख, 6. पचास हजार, 7. चालीस हजार, 8. सहस्रारकल्प में छह हजार, 6-10. आनत-प्राणत कल्पों में चार सौ, तथा 11-12 आरण-अच्युत कल्पों में तीन सौ विमान होते हैं। अन्तिम इन चार कल्पों में (कुल मिला कर 400+300 =700) सात सौ विमान होते हैं // 154-155 / / / (द्वादशकल्प) सामानिक (संख्या)-संग्रहणीगाथा (का अर्थ-) 1. चौरासी हजार, 2. अस्सी हजार, 3. बहत्तर हजार, 4. सत्तर हजार, 5. साठ हजार, 6. पचास हजार, 7. (महाशुक्र में) चालीस हजार, 8. (सहस्रार में) तीस हजार, 9-10, बीस हजार, 11-12. (आरण-अच्युत में) दस हजार (क्रमशः हैं / ) // 156 // इन्हीं बारह कल्पों के प्रात्मरक्षक इन (सामानिकों) से (क्रमश:) चार-चार गुने हैं। 207. कहि णं भंते ! हेट्ठिमगेवेज्जगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते ! हेडिमगेवेज्जगा देवा परिवसंति ? गोयमा! प्रारणच्चुताणं कप्पाणं अपि जाव (सु. 206[1]) उड्ढे दूरं उप्पइत्ता एस्थ णं हेटिमगेवेज्जगाणं देवाणं तमो गेवेज्जगविमाणपत्थडा पण्णता पाईण. पडीणायया उदीण-दाहिणविस्थिण्णा पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिता अच्चिमाली-मासरासिवण्णाभा सेसं जहा बंभलोगे जाव (सु. 201[1]) पडिरूवा। तत्थ णं हेट्ठिमगेवेज्जगाणं देवाणं एक्कारसुत्तरे विमाणावाससते हवंतीति मक्खातं / ते णं विमाणा सव्वरयणामया जाव (सु. 206[1]) पडिरूवा / एत्थ णं हेट्ठिमगेवेज्जगाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखिज्जइभागे / तत्थ गं बहवे हेट्ठिमगेवेज्जगा देवा परिवसंति सम्वे समिड्ढिया सब्वे समज्जतीया सन्चे समजसा सम्वे समबला सव्वे समाणुभावा महासोक्खा अणिदा अप्पेस्सा अपुरोहिया अहमिदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो ! / [207 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त अधस्तन ग्रेवेयक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! अधस्तन ग्रं वेयक देव कहाँ निवास करते हैं ? [207 उ.] गौतम ! आरण और अच्युत कल्पों के ऊपर यावत् (सू. 206-1 के अनुसार) ऊपर दूर जाने पर अधस्तन-ग्न वेयक देवों के तीन वेयक-विमान–प्रस्तट कहे गए हैं; जो पूर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org