________________ 188] [ प्रज्ञापनासूत्र [210 उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूप ज्योतिष्क देवों के अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, बहुत करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जाकर, सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, शुक्र, सहस्रार, प्रानत, प्राणत, प्रारण और अच्युत कल्पों तथा तीनों ग्रे वेयकप्रस्तटों के तीन सौ अठारह विमानवामों को पार (उल्लंघन) करके उससे आगे सुदूर स्थित, पांच दिशाओं में रज से रहित, निर्मल , अन्धकाररहित एवं विशुद्ध बहुत बड़े पांच अनुत्तर (महा) विमान कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं--१. विजय, 2. वैजयन्त, 3. जयन्त, 4. अपराजित और 5. सर्वार्थसिद्ध / वे विमान पूर्णरूप से रत्नमय, स्फटिकसम स्वच्छ, चिकने, कोमल, घिसे हुए, चिकने किये हुए, रज से रहित, निर्मल, निष्पंक, निरावरण छायायुक्त, प्रभा से युक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतयुक्त, प्रसन्नताकारक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। वहीं पर्याप्त और अपर्याप्त अनुत्तरोपपातिक देवों के स्थान कहे गए हैं। (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत-से अनुतरोपपातिक देव निवास करते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे सब समान ऋद्धिसम्पन्न सभी समान बली, सभी समान अनुभाव (प्रभाव) वाले, महासुखी, इन्द्ररहित, प्रेष्यरहित, पुरोहितरहित हैं। वे देवगण 'अहमिन्द्र' कहे जाते हैं। विवेचन-सर्व धैमानिक देवों के स्थानों को प्ररूपणा–प्रस्तुत पन्द्रह सूत्रों (सू. 196 से 210 तक) में सामान्य वैमानिकों से ले कर सौधर्मादि विशिष्ट कल्पोपपन्नों एवं नो ग्रैवेयक तथा पंच अनुत्तरोपपातिकरूप कल्पातीत वैमानिकों के स्थानों, विमानों, उनकी विशेषताओं, वहाँ बसने वाले देवों, इन्द्रों, अहमिन्द्रों आदि सबका स्फुट वर्णन किया गया है। __सामान्य वैमानिकों को विमानसंख्या सौधर्म आदि विशिष्ट कल्पोपपन्न वैमानिकों के क्रमश: बत्तीस, अट्ठाईस, बारह, पाठ, चार लाख विमान प्रादि ही कुल मिला कर 84 लाख 97 हजार 23 विमान, सामान्य वैमानिकों के होते हैं। द्वादश कल्पों के देवों के पृथक-पृथक् मुकटचिह्न-१. सौधर्म देवों के मुकुट में मृग का, 2. ऐशान देवों के मुकुट में महिष (भैंसे) का, 3. सनत्कुमार देवों के मुकुट में वराह (शूकर) का, 4. माहेन्द्र देवों के मुकुट में सिंह का, 5. ब्रह्मलोक देवों के मुकुट में छगल (बकरे) का, 6. लान्तक देवों के मुकुट में दर्दुर (मेंढक) का, 7. (महा) शुक्रदेवों के मुकुट में अश्व का, 8. सहस्रारकल्पदेवों के मुकुट में गजपति का, 9. पानतकल्पदेवों के मुकुट में भुजग (सर्प) का, 10. प्राणतकल्पदेवों के मुकुट में खङ्ग (वन्य पशु या मेंडे) का, 11. आरणकल्पदेवों के मुकुट में वृषभ (बैल) का और 12. अच्युतकल्पदेवों के मुकुट में विडिम का' चिह्न होता है। सक्खि सपडिदिसि को व्याख्या-जिनके पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिणरूप पक्ष अर्थात् पार्श्व समान हैं, वे 'सपक्ष' यानी समान दिशा वाले कहलाते हैं तथा जहाँ प्रतिदिशाएँ-विदिशाएँ समान हैं, वे 'सप्रतिदिश' कहलाते हैं / 2 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 100 2. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 105 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org