________________ द्वितीय स्थानपद] [157 (सु. 207), नवरं एगे विमाणावाससते भवंतीति मक्खातं / सेसं तहेव भाणियव्वं (सु. 207) जाव प्रहमिदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो! / एक्कारसुत्तरं हेटिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए / सयमेगं उबरिमए पंचेव अणुत्तरविमाणा // 157 / / [206 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त उपरितन ग्रेवेयक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! उपरितन नैवेयक देव कहाँ निवास करते हैं ? 206 उ.] गौतम ! मध्यम वेयकों के ऊपर यावत् (सू. 206-1 के अनुसार) दूर जाने पर, वहाँ उपरितन ग्रेवेयक देवों के तीन ग्रेवेयक विमान प्रस्तट कहे गए हैं, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बे हैं; शेष वर्णन (सू. 207 में कथित) अधस्तन ग्रेवेयकों के समान (जानना चाहिए / ) विशेष यह है कि (इनके) विमानावास एक सौ होते हैं, ऐसा कहा है। शेष वर्णन (जैसा सु. 207 में कहा गया है,) वैसा हो यहाँ यावत् हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे देवगण 'अहमिन्द्र' कहे गए हैं; तक कहना चाहिए / [विमानसंख्याविषयक संग्रहणी गाथार्थ-] अधस्तन ग्रेवेयकों में एक सौ ग्यारह, मध्यम ये वेयकों में एक सौ सात, उपरितन के ग्रेवेयकों में एक सौ और अनुत्तरोपपातिक देवों के पांच ही विमान हैं / / 157 // 210. कहि णं भंते ! अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? कहि गं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाप्रो भूमिभागाओ उद्धं चंदिम-सूरिया गह-नक्खत्त-तारारूवाणं बहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई बहूई जोयणसतसहस्साई बहुगीनो जोयणकोडीमो बहुगीग्रो जोयणकोडाकोडोप्रो उड्ढे दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाण-सणंकुमार-माहिदबंभलोय-लंतग-सुक्क-सहस्सार-प्राणय-पाणय-आरण-अच्चुयकप्पा तिणि य अद्वारसुत्तरे गेविज्जविमाणावाससते वीतीवतित्ता तेण परं दूरं गता णोरया निम्मला वितिमिरा विसुद्धा पंचदिसि पंच अणुत्तरा महतिमहालया विमाणा पण्णत्ता। तं जहा-विजये 1 वेजयंते 2 जयंते 3 अपराजिते 4 सम्वट्ठसिद्ध 5 / ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा सहा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, तस्थ णं अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जतिभागे। तत्थ णं बहवे अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति सम्वे समिडिया सव्वे समबला सवे समाणुभावा महासोक्खा अणिदा अपेस्सा अपुरोहिता अहमिदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो! / [210 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक अनुत्तरोपपातिक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? अनुत्तरौपपातिक देव कहाँ निवास करते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org