________________ 184] [प्रज्ञापनासूत्र कप्पा पण्णत्ता, पाईण-पडीणायया उदोण-दाहिणवित्थिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिता अच्चिमालीभासरासिवण्णप्पभा प्रसंखेज्जाम्रो जोयणकोडाकोडीग्रो प्रायामविक्खंभेणं असंखेज्जाम्रो जोयणकोडाकोडीनो परिक्खेवेण सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पका निक्कंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा, एस्थ णं पारण-ऽच्चुताण देवाणं तिनि विमाणावाससता हवंतीति मक्खायं / ते णं विमाणा सम्धरयणामया अच्छा साहा लण्हा घट्टा मट्टा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सध्यभा सस्सिरीया सउज्जोता पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा / तेसिणं विमाणाणं बहुमज्झदेसभाए पंच वडेंसगा पण्णता, तं जहा-अंकवडेंसए 1 फलिहब.सए 2 रयणवडेंसए 3 जायरूववडेंसए 4 मज्झे यऽथ अच्चुतवडेंसए 5 / ते णं वडेंसया सव्वरयणामया जाब (सु. 206 [1]) पडिरूवा / एत्थ णं आरणऽच्चुयाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता / तिसुवि लोगस्स असंखेज्जइभागे / तत्य णं बहवे पारणऽच्चुता देवा जाव (सु. 166) विहरंति / [206-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पारण और अच्युत देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! प्रारण और अच्युत देव कहाँ निवास करते हैं ? [206-1 उ.] गौतम ! अानत-प्राणत कल्पों के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में, यहाँ पारण और अच्युत नाम के दो कल्प कहे गए हैं, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बे और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण हैं, अर्द्धचन्द्र के आकार में संस्थित और अचिमाली (सूर्य) की तेजोराशि के समान प्रभा वाले हैं। उनकी लम्बाई-चौड़ाई असंख्यात कोटा-कोटी योजन तथा परिधि भी असंख्यात कोटा-कोटी योजन की है। वे विमान पूर्णतः रत्नमय, स्वच्छ, स्निग्ध, कोमल, घिसे हुए तथा चिकने किये हुए, रज से रहित, निर्मल, निष्पंक, निरावरण कान्ति से युक्त, प्रभामय, श्रीसम्पन्न, उद्योतमय, प्रसन्नताउत्पादक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप (अतीव सुन्दर) हैं। उन विमानों के ठीक मध्यदेशभाग में पांच अवतंसक कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-१. अंकावतंसक, 2. स्फटिकावतंसक, 3. रत्नावतंसक, 4. जातरूपावतंसक और इन चारों के मध्य में 5. अच्युतावतंसक है / ये अवतंसक सर्वरत्नमय हैं, (तथा सू. 206-1 में कहे अनुसार) यावत् प्रतिरूप हैं / इनमें पारण और अच्युत देवों के पर्याप्तकों एवं अपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं। (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं / इनमें बहुत-से पारण और अच्युत देव यावत् (सू. 196 के वर्णन के अनुसार) विचरण करते हैं। [2] अच्चुते यऽस्थ देविदे देवराया परिवसति जहा पाणए (सु. 205[2]) जाव विहरति / णवरं तिण्हं विमाणावाससताणं दसण्हं सामाणियसाहस्सीणं चत्तालीसाए प्रायरक्खदेवसाहस्सोणं आहेवच्चं कुब्वमाणे जाव (सु. 196( विहरति / बत्तीस अट्ठवीसा बारस अट्ट चउरो सतसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा छ च्च सहस्सा सहस्सारे // 154 // प्राणय-पाणकप्पे चत्तारि सयाऽऽरण-उच्चुए तिन्नि / सत्त विमाणसयाई चउसु वि एएसु कप्पेसु // 15 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org