Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 174] [प्रज्ञापनासून के कारण शोभायुक्त, रक्त आभायुक्त, कमल के पत्र के समान गौरे, श्वेत, सुखद वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले, उत्तम विक्रियाशक्तिधारी, प्रवर वस्त्र, गन्ध, माल्य और अनुलेपन के धारक, महद्धिक, महाद्युतिमान्, महायशस्वी, महाबली, महानुभाग, महासुखी, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले हैं / कड़े और बाजुबंदों से मानो भुजाओं को उन्होंने स्तब्ध कर रखी हैं, अंगद, कुण्डल आदि आभूषण उनके कपोलस्थल को सहला रहे हैं, कानों में वे कर्णपीठ और हाथों में विचित्र कराभूषण धारण किये हुए हैं। विचित्र पुष्पमालाएँ मस्तक पर शोभायमान हैं। वे कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए तथा कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और अनुलेपन धारण किये हुए होते हैं। उनका शरीर (तेज से) देदीप्यमान होता है। वे लम्बी वनमाला धारण किये हुए होते हैं तथा दिव्य वर्ण से, दिव्य गन्ध से, दिव्य स्पर्श से दिव्य संहनन से, दिव्य संस्थान से, दिव्य ऋद्धि से, दिव्य द्युति से, दिव्य प्रभा से, दिव्य छाया से, दिव्य अचि (ज्योति) से, दिव्य तेज से, दिव्य लेश्या से दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करते हुए ; बे (वैमानिक देव) वहाँ अपने-अपने लाखों विमानावासों का, अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का, अपने-अपने त्रायस्त्रिशक देवों का, अपने-अपने सपरिवार अपनी-अपनी अग्रमहिषियों का, अपनी-अपनी परिषदों का, अपनी-अपनी सेनामों का, अपने-अपने सेनाधिपति देवों का, अपने-अपने हजारों आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत-से वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोत्तित्व (अग्रेसरत्व), स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आज्ञैश्वरत्व तथा सेनापतित्व करते-कराते और पालते-पलाते हुए निरन्तर होने वाले महान् नाट्य, गीत तथा कुशल वादकों द्वारा बजाये जाते हुए वीणा, तल, ताल, त्रुटित, घनमृदंग आदि वाद्यों की समुत्पन्न ध्वनि के साथ दिव्य शब्दादि कामभोगों को भोगते हुए विचरण करते हैं। 167. [1] कहि णं भंते ! सोहम्मगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! सोहम्मगदेवा परिवसंति ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वतस्स दाहिणेणं इमोसे रयणप्पभाए पुढबीए बहुसमरमणिज्जाम्रो भूमिभागानो उड्ढं चंदिम-सूरिम-गह-नक्षत्त-तारारूवाणं बहूणि जोयणसताणि बहूई जोयणसहस्साई बहूई जोयणसतसहस्साई बहुगीप्रो जोयणकोडोप्रो बहुगीनो जोयणकोडाकोडीनो उड्ढे दुरं उप्पइत्ता एत्थ णं सोहम्मे णामं कप्पे पण्णत्ते पाईण-पडोणायते उदीण-दाहिणविस्थिपणे प्रद्धचंदसंठाणसंठिते अच्चिमालिभासरासिवण्णाभे असंखेज्जाम्रो जोयणकोडीओ असंखेज्जाम्रो जोयणकोडाकोडीनो आयाम-विक्खंभेणं, असंखेज्जाम्रो जोयणकोडाकोडोप्रो परिक्खेवेणं, सब्बरयणामए अच्छे जाव (सु. 166) पडिरूवे / तत्थ णं सोहम्मगदेवाणं बत्तीसं विमाणावाससतसहस्सा हवंतीति मक्खातं / ते णं विमाणा सम्वरयणामया अच्छा जाव (सु. 196) पडिरूवा / तेसि णं विमाणाणं बहुमझदेसभागे पंच वडेंसया पण्णत्ता। तं जहा–प्रसोगवडेंसए 1 सत्तिवण्णव.सए 2 चंपगवडेंसए 3 चयव.सए 4 मझे यऽथ सोहम्मव.सए 5 ते णं वडेंसया सध्वरयणामया अच्छा जाव (सु. 166) पडिरूवा / एत्थ णं सोहम्मगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / तीसु बि लोगस्स असंखेज्जइभागे। तत्थ गं बहवे सोहम्मगदेवा परिवसंति महिड्डीया जाव (सु 196) पभासेमाणा। ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससतसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सोणं एवं जहेव प्रोहियाणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org