Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय स्थानपद [ 173 ते णं मिग १-महिस २-वराह ३-सोह ४-छगल ५-दह र ६-हय ७-गयवइ -भुयम ६-खग्ग १०-उसभंक ११-विडिम १२-पागडियांचधमउडा पढिलवरमउड-किरीडधारिणो वर-कुडलुज्जोइयाणणा मउडदित्तसिरया रत्ताभा पउमपम्हगोरा सेया सुहवण्ण-गंध-फासा उत्तमवेउविणो पवरवत्यगंध-मल्लाणुलेवणधरा महिदडीया महाजुइया महायसा महाबला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडय-तुडियथंभियभुया अंगद-कुंडल-मट्टगंडतलकण्णपोढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमाला-मउली कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाऽणुलेवणा भासरबोंदी पलंबवणमालधरा दिव्वेणं वण्णेणं दिवेणं गंधेणं दिग्वेणं फासेणं दिवेणं संघयणेणं दिवेणं संठाणेणं दिवाए इदडीए दिव्वाए जतीए दिवाए पभाए दिवाए छायाए दिवाए अच्चीए दिवेणं तेएणं दिवाए लेस्साए दस दिसाप्रो उज्जोवेमाणा पभासेमाणा। ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं तायत्तीसगाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं अग्गहिसीणं सपरिवाराणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं अणियाधिवतोणं साणं साणं प्रायरक्खदेवसाइस्सीणं अण्णेसि च बहूणं वेमाणियाणं देवाणं देवीण य आहेबच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महयरगत्तं प्राणाईसरसेणावच्चं कारेमाणा पालेमाणा महयाऽहतनट्ट-गीय-वाइततंती-तलताल-तुडित-घणमुइंगपडुपवाइतरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुजमाणा विहरति / [166 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक वैमानिक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! वैमानिक देव कहाँ निवास करते हैं ? [166 उ ] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊार, चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र तथा तारकरूप ज्योतिष्कों के अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, बहुत करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जा कर, सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, पानत, प्राणत, आरण, अच्युत, ग्रे वेयक और अनुत्तर विमानों में वैमानिक देवों के चौरासी लाख, सत्तानवे हजार, तेईस विमान एवं विमानावास हैं, ऐसा कहा गया है / वे विमान सर्वरत्नमय, स्फटिक के समान स्वच्छ, चिकने, कोमल, घिसे हुए, चिकने बनाए हुए, रजरहित, निर्मल, पंक-(या कलंक) रहित, निरावरण कान्ति वाले, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतसहित, प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले, दर्शनीय, रमणीय-रूपसम्पन्न और प्रतिरूप (अप्रतिम सुन्दर) हैं / इन्हीं (विमानावासों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक वैमानिक देवों के स्थान कहे गए हैं। (ये स्थान), तीनों (पूर्वोक्त) अपेक्षानों से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। उनमें बहुत-से वैमानिक देव निवास करते हैं। वे (वैमानिक देव) इस प्रकार हैं---सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, पानत, प्राणत, आरण, अच्युत, (नौ) अवेयक एवं (पांच) अनुत्तरोपपातिक देव / / वे (सौधर्म से अच्युत तक के देव क्रमश:)-१. मृग, 2. महिष, 3. वराह (शूकर), 4. सिंह, 5. बकरा (छगल), 6. दर्दुर (मेंढक), 7. हय (अश्व), 8. गजराज, 9. भुजंग (सर्प), 10. खङ्ग, (चौपाया वन्य जानवर या गैंडा), 11. वृषभ (बैल) और 12. विडिम के प्रकट चिह्न से युक्त मुकुट वाले, शिथिल और श्रेष्ठ मुकुट और किरीट के धारक, श्रेष्ठ कुण्डलों से उद्योतित मुख वाले, मुकुट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org