________________ 176 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [167-2] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में देवेन्द्र देवराज शक्र निवास करता है; जो वज्रपाणि, पुरन्दर, शतक्रतु, सहस्राक्ष, मघवा, पाकशासन, दक्षिणार्द्धलोकाधिपति, बत्तीस लाख विमानों का अधिपति है। ऐरावत हाथी जिसका वाहन है, जो सुरेन्द्र है, रजरहित स्वच्छ वस्त्रों का धारक है, संयुक्त माला और मुकुट पहनता है तथा जिसके कपोलस्थल नवीन स्वर्णमय, सुन्दर, विचित्र एवं चंचल कुण्डलों से विलिखित होते हैं। वह महद्धिक है, (इत्यादि आगे का सब वर्णन) यावत् प्रभासित करता हुआ, तक (सू. 196 के अनुसार) पूर्ववत् (जानना चाहिए / ) वह (देवेन्द्र देवराज शक) वहाँ बत्तीस लाख विमानावासों का, चौरासी हजार सामानिक देवों का, तेतीस त्रायस्त्रिशक देवों का, चार लोकपालों का, आठ सपरिवार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, चार चौरासी हजार-अर्थात्-तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत-से सौधर्मकल्पवासी वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य एवं अग्रेसरत्व करता हुआ, (इत्यादि सब वर्णन सू. 166 के अनुसार) यावत् 'विचरण करता है' तक पूर्ववत् (समझना चाहिए।) 198. [1] कहि णं भंते ! ईसाणगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते ! ईसाणगदेवा परिवसंति ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरास पव्वतस्स उत्तरेणं इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जानो भूमिभागाओ उड्ढे चंदिम-सूरिय-गहगण-णक्खत्त-तारारूवाणं बहूई जोयणसताई बहूई जोयणसहस्साई जाव (सु. 167 [1]) उप्पइत्ता एस्थ णं ईसाणे णामं कप्पे पण्णत्ते पाईण-पडीणायते उदीण-दाहिणविस्थिण्णे एवं जहा सोहम्मे (सु. 167 [1]) जाव पडिरूवे / तत्थ णं ईसाणगदेवाणं अट्ठावीसं विमाणावाससतसहस्सा हवंतीति मक्खातं / ते णं विमाणा सम्वरयणामया जाव पडिरूवा / तेसि गं बहुमज्झदेसभाए पंच बडेंसगा पण्णत्ता, तं जहा-अंकवडेंसए 1 फलिहबडेसए 2 रतणवडेंसए 3 जातरूववडेंसए 4 मज्झे एत्थ ईसाणव.सए 5 / ते वडेंसया सवरयणामया जाव (सु. 196) पडिरूवा। एत्थ णं ईसाणाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जतिभागे / सेसं जहा सोहम्मगदेवाणं जाव (सु. 167 [1]) विहरंति / 198-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त ईशानक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! ईशानक देव कहाँ निवास करते हैं ? [198.1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सुमेरुपर्वत के उत्तर में, इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम और रमणीय भूभाग से ऊपर, चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप ज्योतिष्कों से अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, बहत करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जा कर ईशान नामक कल्प (देवलोक) कहा गया है, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बा और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण है, इस प्रकार (शेष वर्णन) सौधर्म (कल्प के वर्णन) के समान (सू. 197-1 के अनुसार) यावत्-'प्रतिरूप है' तक समझना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org