________________ 175] [प्रज्ञापनासूत्र एत्थ णं सणंकुमाराणं देवाणं बारस विमाणावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / ते णं विमाणा सब्वरयणामया जाव (सु. 166) पडिरूवा। तेसि णं विमाणाणं बहुमज्झदेसभागे पंच वडेंसगा पष्णता / तं जहा-प्रसोगवडेंसए 1 सत्तिवण्णव.सए 2 चंपगवडेंसए 3 चयव.सए 4 मझे यथ सणकुमारवडेसए 5 / ते णं वडेंसया सव्वरयणाया अच्छा जाव (सु. 166) पडिरूबा। एत्थ णं सर्णकुमारदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पणत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहबे सणंकुमारा देवा परिवसंति महिड्ढिया जाव (स. 166) पभासेमाणा विहरंति / णवरं अग्गमहिसीओ णथि / [166-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सनत्कुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! सनत्कुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? [166-1 उ.] गौतम ! सौधर्म-कल्प के अपर समान (पूर्वापर दक्षिणोत्तररूप) पक्ष (पार्श्व) और समान प्रतिदिशा (विदिशा) में बहुत योजन, अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, अनेक करोड़ योजन और अनेक कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जाने पर वहाँ सनत्कुमार नामक कल्प कहा गया है, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बा और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण है, (इत्यादि सब वर्णन) सौधर्मकल्प के (सू. 197-1 में उल्लिखित वर्णन के) अनुसार यावत् 'प्रतिरूप है' तक (समझना चाहिए।)। __इसी (सनत्कुमारकल्प) में सनत्कुमार देवों के बारह लाख विमान हैं, ऐसा कहा गया है। वे विमान पूर्णरूप से रत्नमय हैं, यावत् 'प्रतिरूप है', तक (सू.१६६ को अनुसार पूर्ववत् वर्णन समझना चाहिए।) उन विमानों के एकदम बीचोंबीच में पांच अवतंसक कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-१अशोकावतंसक, २---सप्तपर्णावतंसक, ३-चंपकावतंसक, ४-चूतावतंसक और इनके मध्य में ५-सनत्कुमारावतंसक है। वे अवतंसक सर्वरत्नमय, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं, (तक का वर्णन सू. 196 के अनुसार) (पूर्ववत् समझना चाहिए / ) इन (अवतंसकों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक सनत्कुमार देवों के स्थान कहे गए हैं। (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। उन (स्थानों) में बहुत-से सनत्कुमार देव निवास करते हैं, जो महद्धिक हैं, (इत्यादि सब वर्णन सू. 196 के अनुसार) यावत् 'प्रभासित करते हुए विचरण करते हैं' तक पूर्ववत् समझना चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ अग्रम हिषियां नहीं हैं। [2] सणंकुमारे यऽस्थ देविदे देवराया परिवसति, प्ररयंबरवत्यधरे सेसं जहा सक्कस्स (सु. 167 [2]) / से णं तत्थ बारसण्हं विमाणावाससतसहस्साणं बावत्तरीए सामाणियसाहस्सोणं सेसं जहा सक्कस्स (सु. 167 [2]) अगमहिसोवज्जं / णवरं चउण्हं बावत्तरीणं प्रायरक्खदेवसाहस्सोणं जाव (सु. 166) विहरइ / [166-2] यहीं देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार निवास करता है, जो रज से रहित वस्त्रों के धारक है, (इत्यादि) शेष वर्णन जैसे (सू. 197-2 में) शक्र का कहा है, (उसी प्रकार इसका समझना चाहिए / ) वह (सनत्कुमारेन्द्र) बारह लाख विमानावासों का, बहत्तर हजार सामानिक देवों का' (इत्यादि) शेष सब वर्णन (जैसे सू. 197-2 में) शकेन्द्र का किया गया है, इसी प्रकार (यहाँ भी) 'अग्रमहिषियों को छोड़ कर (करना चाहिए / ) विशेषता यह कि चार बहत्तर हजार, अर्थात-दो लाख अठासी हजार प्रात्मरक्षक देवों का यावत् 'विचरण करता है।' (यह कहना चाहिए।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org