Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय स्थानपद [181 हजार विमानावास हैं, (इनके) अवंतसक ईशानावतंसकों (सू. 198-1 में उक्त) के समान समझने चाहिए। विशेष यह है कि इन (चारों) के मध्य में (पांचवां) लान्तक अवतंसक है। (सू. 196 में) (जिस प्रकार सामान्य वैमानिक देवों का वर्णन है, उसी प्रकार (लान्तक) देवों का भी यावत् 'विचरण करते हैं,' तक (वर्णन समझना चाहिए / ) [2] लंतए यऽस्थ देविदे देवराया परिवसति जहा सणंकुमारे। (सु. 166 [2]) णवरं पण्णासाए विमाणावाससहस्साणं पण्णासाए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ह य पण्णासाणं प्रायरक्खदेवसाहस्सीणं प्रणेसि च बहूणं जाव (सु. 166) विहरति / [202-2] इस लान्तक अवतंसक में देवेन्द्र देवराज लान्तक निवास करता है, (इसका समग्र वर्णन) (सू. 199.2 में अंकित) सनत्कुमारेन्द्र की तरह (समझना चाहिए !) विशेष यह है कि (लान्तकेन्द्र) पचास हजार विमानावासों का, पचास हजार सामानिकों का, चार पचास हजार अर्थात्-दो लाख आत्मरक्षक देवों का, तथा अन्य बहुत-से लान्तक देवों का आधिपत्य करता हुआ इत्यादि (शेष समग्र वर्णन सू. 196 के अनुसार) यावत् 'विचरण करता है' तक (समझ लेना चाहिए।) 203. [1] कहि णं भंते ! महासुक्काणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जताणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते ! महासुक्का देवा परिवसंति ? गोयमा! लंतयस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडिदिसि जाव (सु. 169 [1]) उपइत्ता एत्थ णं महासुक्के जाम कप्पे पण्णत्ते पायीण-पडीणायए उदीण-दाहिणविस्थिपणे जहा बंभलोए णवरं चत्तालीसं विमाणावाससहस्सा भवंतीति मक्खातं / वडेंसगा जहा सोहम्मवडेंसगा (सु. 167[1]), णवरं मज्झे यऽत्थ महासुक्कवडेंसए जाव (सु. 166) विहरति / [203-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक महाशुक्र देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! महाशुक्र देव कहाँ निवास करते हैं ? [203-1 उ.] गौतम ! लान्तककल्प के ऊपर समान दिशा में (स. 199-1 के आगे का वर्णन) यावत् ऊपर जाने पर, महाशुक्र नामक कल्प कहा गया है, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बा और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण है, इत्यादि, जैसे (सू. 201-1 में) ब्रह्मलोक का वर्णन है, उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए। विशेष इतना ही है कि (इसमें) चालीस हजार विमानावास हैं, ऐसा कहा गया है। इनके अवतंसक (सू. 197-1 में उक्त) सौधर्मावतंसक के समान समझने चाहिए। विशेष यह है कि इन (चारों) के मध्य में (पांचवां) महाशुक्रावतंसक है, (इससे आगे का) यावत् 'विचरण करते हैं, तक (का वर्णन) (सू. 196-1 के अनुसार) (कह देना चाहिए / ) [2] महासुक्के यऽस्थ देविदे देवराया जहा सणंकुमारे (सु. 166 [2]), गवरं चत्तालीसाए विमाणावाससहस्साणं चत्तालोसाए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ह य चत्तालीसाणं आयरक्खदेवसाहस्सीण जाव (सु. 166) विहरति / [203-2] इस महाशुक्रावतंसक में देवेन्द्र देवराज महाशुक्र रहता है, (जिसका सर्व वर्णन सू. 199 में उक्त) सनत्कुमारेन्द्र के समान समझना चाहिए। विशेष यह है कि (वह महाशुक्रेन्द्र) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org