________________ द्वितीय स्थानपद ] [171 ते गं तत्थ साणं साणं विमाणावाससतसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं अगमहिसोणं सपरिवाराणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं अणियाधिवतीणं साणे साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसि च बहूणं जोइसियाणं देवाण य देवीण य माहेवच्चं पोरेवच्चं जाव (सु. 188) विहरंति / [195.1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक ज्योतिष्क देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भंते ! ज्योतिष्क देव कहाँ निवास करते हैं ? [195-1 उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यन्त सम एवं रमणीय भूभाग से सात सौ नव्वे (790) योजन की ऊंचाई पर एक सौ दस योजन विस्तृत एवं तिरछे असंख्यात योजन में ज्योतिष्क क्षेत्र है, जहाँ ज्योतिष्क देवों के तिरछे असंख्यात लाख ज्योतिष्कविमानावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे विमान (विमानावास) आधे कवीठ (कपित्थ) के आकार के हैं और पूर्णरूप से स्फटिकमय हैं / वे सामने से चारों ओर ऊपर उठे (निकले) हुए, सभी दिशाओं में फैले हुए तथा प्रभा से श्वेत हैं / विविध मणियों, स्वर्ण और रत्नों की छटा से वे चित्र-विचित्र हैं; हवा से उड़ी हुई विजय-वैजयन्ती, पताका, छत्र पर छत्र (अतिछत्र) से युक्त हैं, वे बहुत ऊँचे, गगनतलचुम्बी शिखरों वाले हैं। (उनकी) जालियों के बीच में लगे हुए रत्न ऐसे लगते हैं, मानों पीजरे से बाहर निकाले गए हों। वे मणियों और रत्नों की स्तूपिकाओं से युक्त हैं। उनमें शतपत्र और पुण्डरीक कमल खिले हुए हैं / तिलकों तथा रत्नमय अर्धचन्द्रों से वे चित्र-विचित्र हैं तथा नानामणिमय मालाओं से सुशोभित हैं। वे अंदर और बाहर से चिकने हैं। उनके प्रस्तट (पाथड़े) सोने की रुचिर बालू वाले हैं। वे सुखद स्पर्श वाले, श्री से सम्पन्न, सुरूप, प्रसन्नता-उत्पादक, दर्शनीय, अभिरूप (अतिरमणीय) एवं प्रतिरूप (अतिसुन्दर) इन (विमानावासों) में पर्याप्त और अपर्याप्त ज्योतिष्कदेवों के स्थान कहे गए हैं। (ये स्थान) तीनों (पूर्वोक्त) अपेक्षाओं से-लोक के असंख्यातवें भाग में हैं / वहाँ (ज्योतिष्क विमानावासों में) बहुत-से ज्योतिष्क देव निवास करते हैं। वे इस प्रकार हैं -वृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, शनैश्चर, राहु, धूमकेतु, बुध एवं अंगारक (मंगल), ये तपे हुए तपनीय स्वर्ण के समान वर्ण वाले हैं (अर्थात्-ये किञ्चित रक्त वर्ण के हैं।) और जो ग्रह ज्योतिष्कक्षेत्र में गति (संचार) करते हैं तथा गति में रत रहने वाला केतु, अट्ठाईस प्रकार के नक्षत्रदेवगण, नाना आकारों वाले, पांच वर्षों के तारे तथा स्थितलेश्या वाले, संचार करने वाले, अविश्रान्त (बिना रुके) मंडल (वृत्त, गोलाकार) में गति करने वाले, (ये सभी ज्योतिष्क देव हैं / ) (इन सब में से) प्रत्येक के मुकुट में अपने-अपने नाम का चिह्न व्यक्त होता है / 'ये महद्धिक होते हैं,' इत्यादि सब वर्णन (सू. 188 के अनुसार), यावत् प्रभासित करते हुए ('पभासेमाणे') तक (पूर्ववत् समझना चाहिए।) बे (ज्योतिष्क देव) वहाँ (ज्योतिष्कविमानावासों में) अपने-अपने लाखों विमानावासों का, अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का, अपनी-अपनी सपरिवार अग्रमहिषियों का, अपनी-अपनी परिषदों का, अपनी-अपनी सेनाओं का, अपने-अपने सेनाधिपति देवों का, अपने-अपने हजारों प्रात्मरक्षक देवों का तथा और भी बहुत-से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोवत्तित्व (अग्रेसरत्व), Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org