________________ 170] [प्रज्ञापनासूत्र [194] इस प्रकार जैसे दक्षिण और उत्तर दिशा के (पिशाचेन्द्र) काल और महाकाल के सम्बन्ध में जैसे (क्रमश: सूत्र 190-2 और 161-2 में) कहा है, उसी प्रकार सन्निहित और सामान आदि (दक्षिण और उत्तर दिशा के अणपणिक आदि देवों के समस्त इन्द्रों) के विषय में कहना चाहिए। संग्रहणी गाथाओं का अर्थ--] (वाणव्यन्तर देवों के पाठ अवान्तर भेद--.) 1. अणपणिक, 2. पणपणिक, 3. ऋषिवादिक, 4 भूतवादिक, 5 क्रन्दित, 6. महाक्रन्दित, 7 कुष्माण्ड और 8. पतंगदेव / इनके (प्रत्येक के दो-दो) इन्द्र ये हैं-||१५१।। 1. सन्निहित और सामान, 2. धाता और विधाता, 3. ऋषि और ऋषिपाल, 4. ईश्वर और महेश्वर, 5. सुवत्स और विशाल // 152 / / 6. हास और हासरति, तथा 7. श्वेत और महाश्वेत, और 8. पतंग और पतंगपति क्रमशः जानने चाहिए / / 153 // विवेचन-समस्त वाणव्यन्तर देवों के स्थानों का निरूपण-प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 188 से 194 तक) में सामान्य वाणव्यन्तर देवों तथा पिशाच आदि उनके मूल पाठ भेदों तथा अणणिक आदि पाठ अवान्तर भेदों एवं तत्पश्चात् इनके दक्षिण और उत्तर दिशा के देवों तथा इन सोलह के प्रत्येक के दो-दो इन्द्रों के स्थानों, उनकी विशेषताओं, उन सबकी प्रकृति, रुचि, शरीर-वैभव, तथा अन्य ऋद्धि आदि का स्पष्ट वर्णन किया गया है।' ज्योतिष्कदेवों के स्थानों की प्ररूपरणा 195. [1] कहि णं भंते ! जोइसियाणं देवाणं पज्जत्ताऽज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? कहि णं भंते ! जोइसिया देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जानो भूमिभागानो सत्ताणउते जोयणसते उद्दे उप्पइत्ता दसुत्तरे जोयणसतबाहल्ले तिरियमसंखेज्जे जोतिसविसये, एत्थ णं जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा जोइसियविमाणावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / ते णं विमाणा अद्धकविटुगसंठाणसंठिता सव्वफलियामया प्रभुग्गयमूसियपहसिया इव विविहमणि-कणग-रतणभत्तिचित्ता वाउद्धतविजयवेजयंतीपडाग-छत्ताइछत्तकलिया तुंगा गगणतलमणुलिहमाणसिहरा जालंतररतण-पंजरुम्मिलिय व्व मणि-कणगथभियागा वियसियसयवत्तडरीया (य-)तिलय-रयणद्धचंदचित्ता णाणामणिमयदामाकिया अंतो बहिं च सण्हा तर्वाणज्जरुइलवालुयापत्थडा सुहफासा सस्सिरीया सुरूवा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा।। __एत्थ णं जोइसियाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / तिसु वि लोगस्स प्रसंखिज्जतिभागे। तत्थ णं बहवे जोइसिया देवा परिवसंति, तं जहा-बहस्सतो चंदा सूरा सुक्का सणिच्छरा राहू धूमकेऊ बुहा अंगारगा तत्ततवणिज्जकणगवण्णा, जे य गहा जोइसम्मि चारं चरंति केतू य गइरइया अट्ठावीसतिविहा य नक्खसदेवयगणा, णाणासंठाणसंठियायो य पंचवण्णाश्रो तारयानो, ठितलेस्सा चारिणो अविस्साममंडलगई पत्तेयणामंकपागडियांचधमउडा महिड्डिया जाव (सु. 188) पभासेमाणा। 1. (क) पण्णवणा सुत्तं (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 64 से 67 तक (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 96-97 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org